
हमनवां – 3
इरशाद और मानसी लाइब्रेरी में बैठे कोई किताब में झुके धीरे धीरे खुसुर पुसुर कर रहे थे| थोड़ा आवाज़ तेज़ हो जाने पर दोनों एक बार अपने आस पास के किताबों पर झुके सिरों को देखते तो दूसरे पल वहाँ की ख़ामोशी को महसूसते|
कुछ समय बाद एक किताब पर निश्चित होते दोनों एक किताब इशू करा कर बाहर आते है| बहुत देर की ख़ामोशी के बाद बोलने पर मानसी को अपना गला खंगाल कर साफ़ करना पड़ता है|
“ये है वही किताब इसमें नई नई प्रतिभाओ की कविताएँ छपी है अब इनमें से कई के पते ही नही है|”
“अरे वो तुम मुझ पर छोड़ दो – मैं सब पता कर लूँगा|” इरशाद अपनी दिलशाद मुस्कान के साथ कहता है – “अभी फ़िलहाल मैं चलता हूँ |”
“क्यों?” मानसी किताब देती हुई उसकी तरफ देखती है|
“वो आज समर की कार लाया हूँ न तो सोचता हूँ हॉस्पिटल चला जाऊं उसे लेने – नहीं तो शाम को मार ही डालेगा|”
“ओह्ह – |” मानसी इरशाद की हालत पर हँस पड़ती है|
इरशाद वहां से निकलते सीधे हॉस्पिटल रोड की तरफ चल देता है|
***
हॉस्पिटल से रोड तक का लगभग एक किलोमीटर के रास्ते कोई पब्लिक साधन नही चलता था जिससे समर पैदल ही हॉस्पिटल से निकल रहा था| अभी भी सुबह की उदासी जैसे उसके चेहरे पर वैसी ही चस्पा थी| कोई दो ऑंखें उसे पैदल निकलते देख झट से उसकी ओर लगभग दौड़ती हुई आती है| समर के आगे बढ़ते कदमो को रोकने वह पुकार उठी – “समर!!”
समर जैसे किसी विचार तन्द्रा में बहा जा रहा था| वह तेजी से उसकी तरफ आती जल्दी से समर का कंधा छू लेती है|
“समर |”
समर उसकी तरफ पलटता है| सामने दिव्या खड़ी थी|
“ऐसे पैदल कहाँ जा रहे हो?”
“वो आज कार नही लाया तो|” समर सीमित बात करना चाहता था, इसलिए इरशाद का नाम नही लिया वरना दूसरा प्रश्न होता कि क्यों ? फिर उसका जवाब देना पड़ता|
“चलो मैं छोड़ देती हूँ|” कहती हुई दिव्या उसकी कलाई पकड़ लेती है| जैसे उसे एक पल भी उसका न नुकुर नहीं सुनना था|
“नहीं मैं चला जाऊंगा|” बहुत उबते हुए शब्द समर के मुँह से निकले|
इससे पहले दिव्या कुछ कहती कोई उनकी तरफ आता है| वह देखती है और अगले ही पल सब मौन ही तय हो जाता है| इरशाद कार की चाभी समर के सामने लहलहा देता है और दोनों दिव्या को आँखों से अलविदा कह कर चले जाते है| दिव्या ठगी सी वहीँ खड़ी देखती रह जाती है|
अपने हर एक साल के समर के साथ रहते हुए भी वह उसके और अपने बीच कोई गहरी नदी सी पाती थी जिसे न कभी वह पार कर पाती और न समर उसे पार करता दिखता| वह एक गहरा उच्छवास छोड़ अंतिम छोर तक उनको जाता हुआ देखती रहती है|
***
पूरे रास्ते इरशाद कोशिश करता रहा कि समर कुछ तो उसकी बात की प्रतिक्रिया दे पर समर हर बार बेहद सीमित शब्दों में बोल कर एक लम्बे मौन की खाई में समा जाता| इरशाद जानता था कि समर ज्यादा बोलने वाला व्यक्ति नहीं था लेकिन आज का मौन कुछ और ही बयाँ कर रहा था|
जब तक वह समर का मन खंगालता घर आ चुका था| उसके पूछने पर भी जब समर कुछ नहीं कहता तब इरशाद तेज़ी से सीढियाँ पार कर घर में घुसा तो घर रोज की अपेक्षा आज कुछ अलग दिखा| रोज के मुकाबले घर आज कुछ साफ़ और सुव्यस्थित दिख रहा था| इरशाद दरवाज़े पर ही ठिठक गया| टेबल पर कुछ खाने का सामान देख लपक कर वह आया ही था कि कोई आवाज़ उसे सावधान कर देती है|
खाने को नज़रों ने ही सोखता वह अब सामने खड़े मोहित की बात ध्यान से सुन रहा था| मोहित उसे समर के डैड के आने की बात बताता हुआ साथ ही ये भी बता रहा था कि दिन भर वह उसे कितना फोन मिलाता रहा पर उसका मोबाईल तो यही घर पर पड़ा था|
सभी जानते थे कि समर के डैड का नाम भी लेने का अर्थ सा समर का अतीत की ज़मीं में धस जाना| वहाँ की उसकी घुटन, बेचैनी वे तीनों भी समान रूप से महसूस करते| समर बिल्कुल भी नही चाहता था कि उसके पिता यहाँ आए वैसे भी इन तीन सालों में जब से वे एक दूसरे के साथ रह रहे थे, समर के डैड के आने की खबर तो कई बार आई पर वे आए सिर्फ एक बार ही, वो भी सिर्फ एक रात के पड़ाव के लिए| उतना समय भी समर ने जैसे एक साँस पर साँस धरते व्यतीत किया|
जय जल्दी से कमरे से बाहर आता है – “मैंने अपना कमरा साफ़ कर लिया|”
दोनों तिरछी मुस्कान से उसको देखते उसके कमरे की तरफ बढ़ते है| दरवाज़े पर खड़े खड़े उन्हें कमरा बिल्कुल साफ़ दिख रहा था| बेड शीट जमीन को छूती हुई पूरी बिछी थी| टेबल पर भी कोई सामान नहीं था| जैसे कमरे का सारा सामान जो हमेशा इधर उधर फैला रहता था, आज नज़रो को ढूंढे नही मिल रहा था| यहाँ तक की जय की पुलिस की वर्दी भी बड़े करीने से आज बहुत समय बाद अपने स्थान पर टिकी थी|
“देखा साफ़ है न – मुझे लगता है ऐसे ही अगर कोई न कोई आता रहे तो घर साफ़ करने का मोटीवेशन मिलता रहेगा|” अपनी पीठ खुद ही थपथपाते हुए वह कह ही रहा था कि इरशाद जल्दी से आगे बढ़कर उसकी अलमारी खोलता है तो एक दम से वह कपड़ों के पहाड़ से जैसे नहा जाता है| यही वक़्त था जब जय इरशाद को रोकने आगे बढ़ता है लेकिन अगले ही पल दोनों गधे के सींग से वहाँ से गायब हो जाते है|
***
बड़ी ख़ामोशी से जैसे शाम हट कर रात का हाथ खीँच लाई और साथ में ले आई ढेर उदासी….| समर छत पर अकेला था और किसी की हिम्मत नहीं हुई कि कोई उसे भरोसा या दिलासा देता| उसके डैड इस बार भी नहीं आए| तीनों एक दूसरे का मुँह देखते इसी प्रश्न से दो चार हो रहे थे| सबके जीवन का अपना अपना अकेलापन था, मन के तयखाने में ढेरों ख्वाहिशों के घुमड़ते बादलों का शोर था…..पूरी भरी अँधेरी रात के विस्तार आसमान के चाँद की तरह, नितांत अकेला| जब दोस्तों के शब्द बौने हो गए तो जय को जाने क्या सूझी वह झट से घर से बाहर निकलने को सीढ़ियों की ओर भागा|
अब वह ऋतु के घर के दरवाज़े पर खड़ा था और अपनी दस्तख के बाद दरवाज़े के खुलने का इंतजार कर रहा था| दरवाज़ा खुला तो सामने बुआ जी थी| जय के सारे शब्द उन्हें देखते जैसे गडमड हो गये, फिर भी किसी तरह से शब्दों को जोड़ जाड़कर वह बोला – “वो दरअसल गैस का सिलेंडर सही से लग नहीं रहा, अगर ऋतु देख लेती तो..?” उनके उत्तर के लिए उसे अपने शब्द अधूरे छोड़ने पड़े|
बुआ जी ने एक पल जय को देखा फिर मुड़कर दीवार घड़ी की ओर देखा जिसमें रात के नौ बज रहे थे|
जय समझ गया था – “बस दो मिनट देख लेती अगर….!!”
बुआ जी बिन कुछ कहे पीछे मुड़कर ऋतु को आवाज़ लगाती घर के अंदर चली गई, ये देख जय के पैर वहीँ देहरी पर जमे रह जाते है अगर ये और कोई दिन होता जब बुआ जी घर पर नही होती तो बिना किसी तकल्लुफ के जय कमरे में घुसते ही सोफे पर जड़ जाता तो कभी ऋतु को आवाज़ लगाता सीधे रसोई में चला आता| जय का खिलंदरपन ऋतु को कभी असहज नहीं करता था बल्कि कही न कही वह समर का सन्देश वाहक ही बनकर आता|
“क्या हुआ?” ऋतु रसोई से हाथ पोछती पोछती आती है|
जय का ध्यान अपने सामने से आती ऋतु पर जाता है जो उसके संग चलने को तैयार हो ही रही थी कि वर्षा वहाँ फुदकती हुई आ जाती है|
“इतना छोटा सा काम – अरे मैं भी सिलेंडर लगा लेती हूँ – आप रुको मैं चट से करके आती हूँ|” वर्षा का उत्साह देख जय तुरंत उसे टोकता हुआ अपने हाथ से रुकने का इशारा करते हुए कहता है – “अरे हमे अपनी जान बहुत प्यारी है – तुम नौसिखियों से कुछ नहीं कराना|”
वर्षा का मुँह बनता देख ऋतु हौले से हँस देती है|
“जाओ – मैं अब आपका कोई काम नहीं किया करुँगी|” वर्षा पैर पटकती जाने लगती है तो जय जल्दी से बहलाते हुए कहता है – “अरे छोटी गुडिया नाराज़ हो गई|”
“वर्षा तुम पढ़ो जाके मैं बस अभी आती हूँ|” ऋतु के होठों पर हल्की हँसी थी असल में वह खुद भी वहाँ जाने का कोई बहाना नहीं छोड़ती थी|
सीढियों पर जय के पीछे पीछे चलती ऋतु पूछती है – “क्या नहीं लग रहा !!”
“किसी का मन|” एक दम से ऋतु के कदम रुक जाते है अब जय उसकी तरफ मुड़ गया था – “समर के डैड फिर नहीं आए – मुझे लगा इस समय दो पल के लिए ही सही पर तुम्हेँ समर के पास होना चाहिए|”
“वह है कहाँ ?”
“छत पर |” जय की आँखों में निवेदन उतर आया था|
***
खट की एक आहट पर समर का ध्यान अपने पीछे जाता है, उसकी नज़रे ऋतु को देख चौंक जाती है| इतनी रात छत के अकेलेपन में ऋतु अचानक उसके सामने आएगी अभी उसके मन में ऐसी कोई कल्पना भी नहीं की थी|
ऋतु आगे बढ़ती समर से हाथ भर दूरी पर आकर ठहर जाती है| वह ख़ामोशी से समर को देख रही थी लेकिन उनकी ऑंखें आपस में बातें करने लगती है, कितना कुछ मौन वे आपस में कह लेती, समझ लेती अपने मौन में ही एक दूसरे के मन की परतें खंगाल लेती लेकिन एक पल लगा कि आज शब्दों से भी मन का बयाँ करना है, ये सोच विस्वर मन मुखर हो उठा – “हो सकता है कुछ जरुरी कारण रहा हो इसलिए न आ पाये हो|”
समर मौन रहा, मन के भीषण झंझावत से उसके शब्द मौन हो गए थे|
“तुम्हेँ इंतजार था|”
“नहीं था और न कभी होगा|” एक दम से समर बिफर पड़ा मानों शब्द मन की गहराईयों की सारी सीमा तोड़ते उफान पर आ गए थे|
“समर…!!” ऋतु का मन कांप उठा, उस पल उसका जी हुआ कि दौड़ जाए और सारी सीमाए लांघते समर को अपने पाश में समेट कर टूटने से बचा ले पर मर्यादाओं की बेड़ियों से उसके कदम पल भर भी न डिगे|
आधे चाँद की रात की गहरी गुफाओं में समर किसी छाया सा नज़र आ रहा था, उसका चेहरा तक स्पष्ट नहीं था बस उसके शब्द सीधे ऋतु तक पहुँच रहे थे – “हर बार के उनके आने की नाउम्मीदी अतीत की हर परत उघार देती है, जहाँ मुझे सिर्फ अपनी माँ का चेहरा स्पष्ट दिखता है और दिखता है उनके चेहरे पर का अतहा इंतजार, इंतजार और इंतजार – अपने अंतिम समय तक भी वे यही करती रही बस इंतजार – और वे हर बार की तरह कभी समय पर नहीं आए – आए जब मेरी माँ सिर्फ देह रह गई एक बेजान देह, जिनकी बंद आँखों में सदा के लिए इंतजार की किरकरी दफ़न हो चुकी थी|”
ऋतु का अंतरस भीगा जा रहा था, उसका मन समर का एक एक भीगा शब्द जैसे अपने आंचल में समेट कर उसका चेहरा पोछ देना चाहता था| देर तक खामोशी उनके बीच घने बादलों सी उनके अस्तित्व को ढके रही, वे उसी बादलों के इकट्ठा होने, गरजने, घुमड़ते और भीगने को महसूस करते रहे| रेलिंग पर सधे एक हाथ की दूरी पर भी उनके हाथ एक दूसरे को स्पर्श न कर पाए लेकिन मन मानो गले लग जी भर रो आया था और अब वह खुद को बहुत हल्का हलका महसूस कर रहा था|
क्रमशः…………