
हमनवां – 31
चारों ओर लहलहाते खेत और शाम को लौटते ढोर डंगर के साथ खेतों पर उतरती धूप अब बहुत ही सुहानी लग रही थी, पीछे बैठी शैफाली की नजर तो सड़क के आस पास के परिदृश्य से जैसे हटने का नाम ही नही ले रही थी| बगल में बैठा समर बीच बीच में उसे गाँव के किसी न किसी दृश्य का बखान कर देता| शैफाली की नज़रों के लिए सारे दृश्य बेहद अनजाने थे, वह तो बस ऑंखें फाड़े ताके जा रही थी| बीच बीच में बोर्ड को पढ़ती तो समर बताता कि पंजाब के बरनाला से गुजरते वे मोगा जा रहे है|
अब शैफाली का ध्यान मोहित की ओर जाता है जो अभी अभी बगल से आगे निकला था वह पूछती है कि लम्बी ड्राइविंग से मोहित परेशान तो नहीं हो जाएगा !! तो जय बताता है कि मोहित के लिए लम्बी ड्राइविंग कोई नई बात नहीं है वह कई बार अकेले ही गाँव आ जाता है अपनी कार से, वैसे भी मोहित को कही भी जाना हो चाहे वह कितना भी दूर हो वह कार से ही रास्ता तय करता है पर किसी लोकल कन्विंस को यूज़ नही करता| ये सुनते पता नही क्यों शैफाली के मष्तिष्क ने संध्या वाली घटना से इस बात का लिंक जोड़ लिया| उसे अहसास था कि जीवन में घटने वाली घटनाओं से कभी कभी सम्पूर्ण जीवन उससे प्रभावित हो जाता है, वह अपने में सोचती अब खामोश हो गई|
अब धीरे धीरे अँधेरा होने लगा रास्ते भी अब संकरे हो चले थे, ऐसे ही किसी मोड़ पर इरशाद मसखरी में मोहित से कार आगे कर लेता है और फिर उसे आगे आने नही देता, जय और इरशाद एक दूसरे को देखते धीरे धीरे हँस रहे थे, उन्हें पता था कि मोहित को इस तरह परेशान करने पर वह किस कदर उखड़ जाता था| अब अँधेरा होते गाँव की गलियाँ सूनी हो चली थी, कहीं कहीं चौपाल में लोग झुण्ड में बैठे नजर आ रहे थे तो मिट्टी के घरों से साँझ के चूल्हे से धुँआ उठता हुआ दिखाई दे रहा था| एक भीनी भीनी सी खुशबू चारों ओर फैली थी जिससे उनके पेट के चूहे और जोर से उछलने लगे|
आखिर एक जगह इरशाद कार रोक देता है और आस पास देखता हुआ जय से पूछता है – “यही रोकना है न – आगे तो कार नही जा पाएगी|”
वे तीनों अँधेरे में कार की हेड लाइट से उस जगह का जब तक कुछ अंदाजा लेते कुछ चेहरे उन्हें अपने पास आते दिखे| समर और जय झट से कार से उतर गए फिर अन्दर बैठी शैफाली अँधेरे में उभरती कुछ आवाजे सुनती है|
पहले जय और समर की आवाज थी|
“पैरी पौना ताई जी|”
“जिन्दा रह पुत्तर |”
अब तक इरशाद भी कार से उतर चुका था|
शैफाली अन्दर बैठी बैठी ही कोई गूंजती हुई आवाज सुनती है|
“साहे घर परोहने आए हन |” (मेहमान)
“परोहने नही बेटे आए है |” कोई मरदाना आवाज गूंजी|
फिर सब मोहित को पूछते है तो पीछे आ रहा है बताते है वे|
फिर कुछ बच्चों का शोर सुनती हुई किसी को गाड़ी से सामान निकालने का सुनती है|
“जी अइया नूँ |”
इससे शायद जय को शैफाली का ध्यान आता है और वह कार की खिड़की से झांकता हुआ उसे बाहर आने का इशारा करता है| शैफाली बाहर आती है, तो पल में ही सबकी आवाज जैसे अँधेरे में समा जाती है, चारों ओर बस ख़ामोशी बस धीरे से फुसफुसाहट उसे महसूस होती है|
“ओह कोन है !!”
“ये शैफाली है -|” शैफाली देखती है कि जय आगे बढ़कर उसका परिचय दे रहा था – “मोहित के कॉलेज के प्रिंसपल की भतीजी है – लन्दन से आई थी तो उन्होंने मोहित के साथ भेज दिया – गाँव देखने – अब बेचारा मना कैसे करता|”
“ए लो इसमें मना करने जैसी क्या बात है डरने वाली क्या बात |’
शैफाली और बाकी दोनों भी जय की ओर औचक देखते रहे कि आखिर वह ऐसा क्यों बोल रहा है फिर भी सब ख़ामोश रहकर उसमें अपनी सहमति दे देते है| तभी दूसरी कार की हेड लाइट से सबका ध्यान उस ओर जाता है जहाँ अब मोहित कार खड़ी कर उनकी ओर बढ़ रहा था|
मोहित आगे बढ़कर सबके पैर छूता है तो आर्शीर्वाद की झड़ी सी लग जाती है, बच्चे उसकी ओर दौड़े आते है, वह शायद गुड्डी को ढूंढ रहा था जो हमेशा उसके आने पर दौड़ती आती हुई क्या लाए पूछती थी|
एक ही पल में उनका सारा सामान सबके हाथों में था और वे सब अन्दर की ओर चल रहे थे, चलते चलते मोहित शैफाली की ओर एक नजर देखता है तो चलता हुआ धीरे से जय के कानों के पास आता हुआ फुसफुसाता हुआ पूछता है –
“क्या बताया ??”
“किस बारे में ?”
“अब ज्यादा अनजान मत बनो – शैफाली के बारे में !!”
“वो ऐसा है उसकी तुम चिंता मत करो – मैंने कहा था न कि मैं सब देख लूँगा तो चिल यार |” कहता हुआ तेजी से भीड़ में घुस जाता है|
पीछे चलता मोहित जय की खुडपेंच से अच्छे से वाकिफ़ था पर हालात को देख उसने चुप रहना ही मुनासिब समझा|
***
शैफाली ने जानकार यहाँ आने के हिसाब से प्लेटफार्म हील पहन रखा था ताकि आसानी से चल सके| अब वह सब एक बड़े लोहे के गेट से अन्दर आते है, वहां सामने एक खुला मिट्टी का आंगन था जहाँ इधर उधर छितरी पड़ी कई खाट पड़ी थी तो एक किनारे एक टुकड़ा टेंट के पास बड़ी की अंगीठी सुलग रही थी जिससे उठता धुँआ अपनी भीनी भीनी खुशबू से उन सबके पेट के चूहों में और उछल कूद मचा देता है| उस आंगन से जुड़ते कई कमरे या घर जैसे बने थे, जिसके अन्दर से आती बल्ब की धीमी रौशनी ढ़ेरों आवाज से साथ वहां मौजूद थी| सभी एक कमरे की ओर बढ़ने लगे तो शैफाली भी उसी ओर बढ़ने लगी पर साथ चल रही स्त्रियों ने उसकी बाजू पकड़ कर दूसरी ओर के लिए उसे अपनी ओर खीँच लिया| शैफाली देखती है कि वो भीड़ अब मर्द और औरतों के रूप में दो हिस्सों में बंट गई थी|
वे जिस कमरे की ओर बढ़े वहां बड़ी सी खाट पर दोनों हाथ जमाए उसके दार जी बैठे थे, वे सब मिलकर सत श्री अकाल कहते उनके पैरों की ओर झुकते है तो वे झट से अपने बलिष्ट बाँहों में एक साथ उन चारों को समेट लेते है और खूब आशीष देते उनका हालचाल पूछने लगते है| वे सभी उनके आस पास बैठ जाते है|
इधर शैफाली चारों ओर रंग बिरंगी ओढ़नी वाली औरतों से घिरी थी, सभी औचक उसका रंग रूप निहार रही थी| शैफाली के कितना भी देशी लिबास में होने पर भी वे उसकी विदेशी देह को अच्छे से जान पा रही थी| शैफाली उनको आपस में खुसुर पुसुर कर खिलखिलाते हुए देखती रही तो झट से भाभी आकर उसकी बांह थामती हुई सबकी तरफ देखती हुई बोली – “कदे नहीम वेखिया चिट्टी कुड़ी ?”
ये सुन सब एक साथ खिलखिला कर हँस पड़ी|
“गुरमिते पानी लेयाओ |”
उनके आवाज लगाते एक दो चोटी वाली प्यारी सी लड़की एक बड़ा सा गिलास लेकर उसकी ओर भागती हुयी आती शैफाली की ओर गिलास बढ़ा देती है तो वह भी भरपूर मुस्कान से गिलास लेकर झट से पी लेती है और आखिरी घूंट पीते हलके से उसके गले से एक आह फूटी तो सामने खड़ी लड़की अपना मुंह दबाकर हँस पड़ी जिससे शैफाली के चेहरे पर भी हँसी आ गई तभी वह देखती है कि औरतों की भीड़ को चीरती एक बड़ी लड़की उसे अपनी ओर आती दिखी, उसकी रंगत सबसे कुछ अलग सी थी वह उसका चेहरा गौर से देखने लगी तो उसे लगा कि उसकी देह हल्दी की रंगत से कुछ कम पीली थी| वह उसके पास आती झट से शैफाली का हाथ अपने हाथों के बीच लेती हुई बोली – “कि तुसी खाना खा लई है?”
शैफाली कुछ समझ नही पाती वह बस अपने आस पास के चेहरों की ओर ताकने लगती है| शैफाली जो कई विदेशी भाषाएँ अच्छे से बोल समझ लेती थी पर उसके लिए पंजाबी समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा था|
“मेरे नाल आके बेठ जा|” ऐसा कहती वह उसे अपने साथ खींचती हुई खिलखिलाती अपने साथ ले चलती है तो पीछे से आवाज आती है – “शैफाली पुत्तर तुम गुड्डी के साथ जाओ मैं खाना भिजवाती हूँ |”
अब तक सब समझ गई कि वह उन सबकी भाषा को नहीं समझ पा रही है तो वह गुड्डी को शैफाली के लिए कमरा ठीक करने वह उसे हाथ मुंह धुला देने का निर्देश देती बाहर की ओर चल देती है|
शैफाली के लिए ये सब बिलकुल अलग ही अनुभव था, इससे पहले उसने कभी इतने सारे हँसते चेहरों को अपने आस पास कभी महसूस नही किया था, वह हैरान तो थी पर उतना ही उसे मज़ा भी आ रहा था, उनका बात बात में खिलखिलाते हुए ओढ़नी में मुंह छुपा लेना तो कभी बिना किसी हिचकिचाहट के उसके आस पास अपनों की तरह बना रहना| अगले ही पल वह कई लड़कियों से घिर गई थी, उनमें से कोई उसे कमरे के पास के छोटे हिस्से में मुंह हाथ धुलवा लाई तो कोई तौलिया लिए खड़ी थी उसके कमरे में पहुँचते उसके लिए खाने की भरी थाली इंतजार कर रही थी जिसकी भीनी भीनी खुशबू अब तक के किसी भी खाने से बिलकुल अलग थी| अब उनमें से एक लड़की मेज ढूंढने गई, शैफाली समझ गई| वह झट से थाली के सामने आराम से बिस्तर पर आलथी पालथी मारकर बैठ गई जिसपर सभी लड़कियां खिलखिला कर हँस पड़ी| आखिर इतने दिन भावना के पास रहकर उसने बैठने का ये तरीका भी अनजाने ही सीख लिया था जो यहाँ उसके काम आ रहा था|
***
मानसी परेशान सी अपने कमरे में बैठी अपने पी सी में जल्दी जल्दी कुछ टाइप कर रही थी तभी मानव वहां आया और उसके पास जाकर खड़ा हो गया जिससे खीझती हुई मानसी उसकी तरफ देखती हुई बोली – “क्या है – कोई काम नहीं क्या है तुम्हारे पास ?”
“मैं आपको खाने के लिए बुलाने आया था – |”
“तो खा लो न जाके – मुझे अभी नहीं खाना|” उसकी उंगलियाँ की बोर्ड पर थमी मानव के जाने का इंतजार कर रही थी|
“पापा बाहर गए है परसों तक आएगें – आप चलो न खाने|”
इससे मानसी को याद आया कि हाँ उनके पापा तो दो दिनों के लिए बाहर गए है तो उसका स्वर मानव के लिए कुछ मध्यम हो गया|
“तुम चलो मैं बस अपना काम खत्म करके आती हूँ|”
मानव चला गया तो मानसी की उंगलियाँ फिर यंत्रचालित की बोर्ड पर दौड़ने लगी|
क्रमशः……..