Kahanikacarvan

हमनवां – 38

कार जैसे ही रूकती है मोहित के साथ लाए सामान का इंतजार कर रही सारी लड़कियां दौड़ी दौड़ी उसके पास आ गई और अपना अपना सामान लेकर आंधी तूफ़ान सी भाग गई मोहित कार से निकल भी नहीं पाया ये देख शैफाली को हँसी आ गई, उनके बीच में से छोटी सी गुरमीत शैफाली को नजर आई जो शायद लड़कियों संग वहां आ तो गई पर शैफाली को देख वही ठहर गई, उसे देख मोहित कार से निकलकर उसे गोद में उठा लेता है| वे अन्दर बढ़ ही रहे थे कि ननकू दांत निपोरता मोहित के सामने प्रकट हो गया|

“हाँ भई तू भी ले |” मोहित साथ चल रही गुरमीत को शैफाली की गोद में देकर ननकू को कार तक आने का इशारा करता है|

शैफाली गुरमीत का सलोना चेहरा चूमती हुई उसके हाथ में वही गुडिया थमा कर अन्दर चलने लगती है जिससे उन नन्हे हाथों से कुछ सूखी मेहँदी झड़ जाती है| शैफाली देखती है गिरती साँझ में सभी व्यस्त थे, घर का हर कोना जैसे मेहमानों से अट सा गया था इसलिए उसे गोद में लिए गुरमीत जिधर का इशारा करती वह उसी ओर कदम बढ़ा देती|

गुरमीत जिस कमरे के सामने लाई उस ओर समझने शैफाली देख ही रही थी कि उसकी गोद से झट से उतरकर उसका हाथ खीँच कर वह उसे अन्दर ले आती है| वह अन्दर आती हुई देखती है कि पलंग पर ताई जी बैठी थी, जिनके पास दौड़कर अब वह अपनी हाथ की पकड़ी गुड़ियाँ दिखा कर शैफाली की ओर इशारा कर रही थी|

“वाडिया है – अरे पुत्तर जी – आना अन्दर|”

शैफाली ज्यों ही अंदर जाती है वे हाथ पकड़ कर उसे अपने पास बुला लेती है, उनके पास बैठने पर वह देखती है कि ताई जी के हाथों में कोई घोल था जिसे बड़ी तन्मयता से लगातार वे अपनी उंगली से घोल रही थी|

“तो कैसा रहा – बाज़ार देखा !!”

“हाँ बहुत अच्छा लगा – |”

“ये क्या है ?” शैफाली उनके हाथ की ओर इशारा करती हुई पूछती है क्योंकि वो चीज़ भलेहि उसे आकर्षित न लगी पर उनका इस तन्मयता से उसे घोला जाना उसे जरुर प्रश्न पूछने पर मजबूर कर गया|

“ये – मेहँदी का घोल है – |”

“मेहँदी !!” शैफाली की ऑंखें चौड़ी हो जाती है|

“होर क्या – ये कुडिया तो पीपे वाली लगनी फिरती है – मैनू समझ नई आन्दी ओ – मैनू  तो ये असली पत्तियां का लेप तैयार कर राखा है हम स्त्रियाँ तो घार के काम कर रात में यही लगा लेंगी|” फिर शैफाली की हथेली अपने हाथों में लेती हुई कहती है  -“ला मैं तेरी हथेली विच मेंहदी लगा दूँ|” कहती हुई वे शैफाली की हथेली अपनी हाथों में समेटती हुई कहती रही – “पता है पहले हम सब सखियाँ मिलकर ऐसे ही घोल बना कर इन तीलियों से लहरिया, फुलकारियाँ बनाती थी – फिर आराम से सुखा कर इन पर चिन्नी नीबू का घोल लगाती, कभी कभी रंग गाढ़ा करने पता है तवे पर तेल और लौंग का धुँआ भी देतिया तब जाकर जो रंग चढ़ता वो ही मेहँदी का असली रंग होता पर आज कल तो पता नहीं कोन सा केमिकल डालते है छूते हाथ काला हो जाता पर वो लाल रंग नई आन्दा जो हथेली से उठकर मन तक उतर जाता था|” वे कहीं खोई हुई सी मन की कहे जा रही थी और शैफाली भी चाव से एकटक बस उन्हें सुनती जा रही थी|

“गुरमिते |” परजाई जी गुरमीत को आवाज लगाती वही आ रही थी|

“अरे वाह किन्नी सोनी मेहँदी लगी है|” अपने हाथ में खाने की थाली लिए वे आती हुई शैफाली की हथेलियों पर लहरिया और फूल पत्ती की फुलकारी देख चहकती हुई बोली|

शैफाली भी अपनी हथेली में लग चुकी मेहँदी उनकी आँखों के सामने कर खिलखिला पड़ी ये देख ताई जी जल्दी से बोली – “ऐ कि मैं तो भूल गई – पुत्तर तूने रोटी न खाई !!”

शैफाली अचकचा उठी तो बगल में बैठी परजाई जो गुरमीत को खिलाने के लिए थाली लाई थी अब उसकी ओर एक कौर बढ़ाती हुई बोली – “तो क्या मैं आज अपनी दोनों धिया नू रोटी नही खिला सगदी|”

ये सुन उस कौर को अमृत की तरह अपने गले के नीचे उतार शैफाली आँखों से मुस्कराकर फिर गुरमीत को अपने पास बुलाती हुई बोली – “ये डॉल तुम्हे पसंद आई पर तुमने मुझे थैक्यू तो बोला ही नहीं |” गुरमीत चलती हुई चुपचाप शैफाली के पास आ जाती है|

“शैफाली गुरमीते बोल नई सगदी|”

ये सुन शैफाली का दिल धक् से होकर रह गया, वह गुड़ियाँ से खेलती मासूम गुड़िया को देखती रह गई|

“बचपना में निमोनिया होने से उसकी आवाज चली गई – लड़कियों के लिए यहाँ बड़ी मुश्किल है तभी तो हम भी चाहती है कि यहाँ जल्दी से दवाखाना और सकूल खुले – |”

ये सुनकर शैफाली को लगा कि उस पल सब कुछ उसे धुंधला दिखने लगा जिससे वह अपनी ऑंखें झपकाकर अपने आँखों की नदी को रोक लेती है|

***

रात घिर आई और दिनभर की थकान से बोझिल लगभग सभी सोने जा चुके थे पर कोई था जिसकी आँखों में नींद की जगह ढेर शैतानी उतर आई थी| कबसे मौके की ताड़ में आज अपने शैतान दस्ते के साथ हैपी आंगन की सीढ़ियों के नीचे के अँधेरे में अपने साथियों को क्या करना है धीरे धीरे समझा रहा था| फिर अपने साथ लाया पाउडर का डिब्बा थमाता मेजर की तरह सबको निर्देशित कर चुपचाप खुद सीढ़ियों के ऊपर छत की ओर चल देता है|

छत पर ननकू अभी पहुंचकर सोने का उपक्रम कर ही रहा था कि उसके कानों से कोई आवाज टकराती है, एक पल वह अपना सर झटककर उस आवाज को अनसुना कर लेटने लगा पर फिर वही आवाज सुन वह एक दम से उठ कर बैठता आवाज को ध्यान से सुनते हुए मन ही मन बुदबुदाया ‘घुंघुरू दी वाज’|

वह डर कर अपने आस पास देखता है, छत पर बाकी सब सो रहे थे ये देख डर लगने पर भी उसके गले से कोई आवाज नही फूटी, वह डरकर झट से चादर सर से तान कर मन ही मन बुदबुदाता लेट गया पर कानों में आवाज अब उसके बहुत नजदीक आने लगी तो झट से चादर हटा कर वह उठ बैठता हुआ सामने अँधेरे में अपनी ऑंखें फाड़े देखता है, आवाज आनी बंद हो गई| अब न उससे लेटा गया न बैठा गया तो डरते डरते सीढ़ियों के पास जाता धीरे धीरे नीचे उतरने लगा|

उसकी आंखे अभी भी अपने आस पास अँधेरे को घूर रही थी तो सामने अँधेरे में दो चमकती आंख दिखते उसके हलक से चीख निकल ही पड़ी जिससे वह कई सीढियाँ एक साथ घबरा कर उतर गया| तभी धप की आवाज जो ठीक उसके बगल से आई, वह चौंक कर पीछे देखता है तो वो चमकती दो आंखे अब उसके बिलकुल नजदीक थी ये देख वह डरकर गलियारे की ओर लडखडाता हुआ भागता है| उसकी सांसे ऊपर नीचे होती हुई ऑंखें डर से फ़ैल गई थी|

शैफाली जाने किस सोच में पलंग पर बस लेटी थी पर नींद उसकी आँखों से कोसो दूर थी, वह चाहकर भी दूसरी ओर करवट नहीं ले पा रही थी, उसके हाथों की मेहँदी ताई जी ने चीनी के घोल से गीली रख छोड़ी थी इससे अपने हाथों को पलंग के नीचे किए वह एक करवट लेटी थी कि गलियारे से आती कोई आवाज से उसका ध्यान उस ओर जाता है जिससे अब वह अपना सारा ध्यान उस ओर लगा देती है, कोई लगातार आती आवाज उसे उठने पर मजबूर कर देती है|

शैफाली उठकर देखती है कि उसके बगल में लेटी पूजा पूरी तरह से बेखबर सो रही थी तो वह न जगे इससे वह धीरे से बिन आहट के उठती हुई अपने पैर से स्लीपर टटोलने लगती है पर बहुत देर इधर उधर पैर मारने पर जब नही मिलती तो नंगे पैर ही वह धीरे से दरवाजा खोल बाहर गलियारे की तरफ  बढ़ने लगती है| चारों को घुप्प अँधेरा था| सर्दियों का शुरूआती दिन होने और खुले प्रांगण में कुछ शीतलता महसूसती उसने अपने शरीर पर एक सफ़ेद चादर ओढ़ रखी थी| उस अँधेरे गलियारे में बढ़ती हुई वह चलते चलते किसी को आता देखती है तो किनारे खड़ी होकर उस ओर कसकर अपनी आंखे जमा देती है| तभी उसे लगता है कि उसके पैर किसी चिकनी मिट्टी से सन गए हो जैसे वह झुककर अपने तलवे उठाकर देखती है कि हलकी खुशबू उसके नथुनों में समाने लगती है|

छीछ.. छीछ..  कोई आवाज उसे अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करती है| वह खम्भे की ओट के पीछे छुपी परछाई को देखती हुई इससे पहले कुछ समझती कोई दो जोड़ी हाथ उसे दोनों ओर से धकेलते खंबे की ओट में ले आते है|

‘साडे किए कराए विच पानी फेरने कि !!!’

शैफाली देखती है कि ये तो शैतानों की पलटन का सरदार हैपी सिंह था जो उसे नीचे की ओर झुकाए सारा कुछ इशारे से समझा रहा था| शैफाली उसकी गोद में पकड़ी बिल्ली और उसके गले में बंधी घंटी तो  गलियारे में फैले पाउडर की सफ़ेद चादर पर अपने छपे पैर देख सारा माजरा समझ जाती है| बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी दबाती वह इशारे से अब क्या ?? पूछती है तो हैपी उसकी चादर उसके सर पर डालता हुआ उसे बस एक तरफ से दूसरी तरफ जाने के लिए मनाने लगता है| वही से बैठी बैठी शैफाली गलियारे के कोने में दुबककर चलते ननकू पर निगाह डालती है तो उसकी बस हँसी छूटने ही वाली थी पर किसी तरह से अपनी हँसी जब्त करती वह जाने क्यों उसकी बदमाशी में साथ देने यूँही तैयार हो जाती है|

ननकू की बुरी तरह से घिग्गी बंधी हुई थी वह किसी तरह से अपने चारों ओर नज़र डालता आगे बढ़ ही रहा था कि फर्श पर सफ़ेद पैरो के निशान और सामने से आता सफ़ेद साया देख उसकी आवाज गले में ही घुटी रह गई, वह हाथ जोड़े पीछे भागा कि किसी देह से टकराते धड़ाम से गिर पड़ा|

नींद शायद मोहित से भी रूठी थी वह गलियारे की तरफ आ ही रहा था कि ननकू उससे टकरा गया उसे किसी तरह से उठाते हुए वह उसका डर से पसीने पसीने हुए चेहरा देखता है|

“बाबा… जी बचाओ मैनू – भू… भूतनी…|”

“ओए ननकू पगला गया क्या –|” वह उसे पकड़कर झंझोड़ता है|

“भूतनी भूतनी….|” हाथ से अपने पीछे की ओर इशारा कर वह सरपट सीढ़ियों की ओर भागा|

“अरे सुन तो – अभी देखता हूँ कहाँ है तेरी भूतनी..!|”

एक तरफ ननकू सर पर पैर रखे भाग गया था तो दूसरी ओर मोहित को आता देख शैफाली सहित सारे बच्चे खम्बे के पीछे छुप गए थे, मोहित अब उसी ओर आ रहा था उन्हें पता था ऐसे समय वे गलियारे में आए तो पक्का पकड़ लिए जाएँगे|

शैफाली भी खुद को चादर में समेटे खम्बे के पीछे छुपी सोच रही थी कि क्यों बच्चों के बचपने में आई !! मोहित के कदम लगातार उस ओर बढ़ रहे थे, गलियारे में नाम मात्र के लिए दूर से जलते बल्ब की रौशनी आ रही थी इसलिए आंखे फैलाए वह उस अँधेरे की ओर बढ़ रहा था| खम्बे के नजदीक आते उसे चादर का एक टुकड़ा लहलहाता दिखा तो तेजी से वह उस ओर हाथ बढ़कर तेजी से उस चादर को अपनी ओर खीँच लेता है|

ये उस वक़्त के लम्हे को कहाँ पता था कि उन अंधेरों में उसका किस उजाले से सामना होने जा रहा है| चादर जमीं पर गिर गई थी और मोहित की हथेली शैफाली की हथेली कसकर अपने में भींचे अब वे दोनों एक दूसरे के सामने थे| उस पल जैसे सारी कायनात स्थिर हो गई, देह मूर्ति बन गई और ऑंखें अपलक उस ओर ताकती रह गई| नीरव पल की स्तब्धता जैसे हवा को समेट ले गई| वे खामोश एक दूसरे को थामे जैसे जडवत हो गए पर मौके को तलाशती धमाचौकड़ी चुपचाप निकल भागती है नीरवता में इस लेश मात्र की आहट से अचानक दोनों की तन्द्रा टूटती है और वे झट से एक दूसरे का हाथ छोड़ कह उठते है –

“वो मैं आवाज सुनकर आया था|”

“सेम मैं भी बस आवाज सुनकर आई थी|”

कहते हुए दोनों हडबडाते हुए विपरीत दिशा की ओर तेजी से चल देते है|

***क्रमशः

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