Kahanikacarvan

हमनवां – 47

ये उनके जीवन का अज़ब दुःख था कि जिस इन्सान ने जीवों को बचाने के लिए अपना सर्वस्व नौछावर कर दिया वही अपना ही परिवार नही बचा पाया, हमेशा जंगलो, समंदर के बीच भी ये उन्हीं का मन जानता था कि वे अपने परिवार को कितना अधिक याद करते पर शब्दों से कभी जाहिर नही कर पाए| समर की माँ उनका काम समझती थी इसलिए सदा पूर्ण ख़ामोशी से सब स्वीकार करती अकेले जीवन जीती रही पर समर के लिए अपने पिता के होते पितृविहीन होकर जीना सदा अस्वीकृत रहा यही पिता पुत्र के बीच का शीत युद्ध का परिणती बन गया|

वह कई बार उनसे मिलना चाहता, उन्हें अपने आस पास महसूस करना चाहता पर वे कहाँ होते ये वह कई बार खुद भी नही जानता, बस उनके बीच ईमेल और कभी अचानक से आई कोई चिट्ठी ही उनके बीच वार्ता का सूत्र होती| वे भी मजबूर थे, जितना उन्हें समर से प्यार था उतना ही अपने काम से भी इसलिए कभी उनकी आपस में तुलना नही करते, वे बस सहजता से दोनों को जीना चाहते और समर उतने ही अस्वीकृति से उनका काम नकार देता|

आज फिर काफी लंबे समय बाद पिता पुत्र सामने थे अपनी बरसो बरस की ख़ामोशी के साथ लेकिन ऋतु से मिलते उन्हें लगा कि यकीनन वह बिलकुल समर की माँ की तरह है सब सहजता से मुस्करा कर अपना लेने वाली इससे उस पल उनके मन में एक उम्मीद का अंकुर पल्लवित हो उठा|

बुआ जी तो उन्हें देख देखती रह गई, उनके कन्धों तक के सफ़ेद बाल, सफ़ेद दाढ़ी और चिकना सफ़ेद गोरा रंग एक दम विदेशी जैसा ये देख बुआ जी ये सोच घबरा गई कि वे अपनी बात कैसे कर पाएगी पर अगले ही पल समर के पिता का सरल स्वभाव कब उनको सहज कर गया वे खुद भी नही जान पाई|

“आप ने अपनी इतनी प्यारी अनमोल बेटी के लायक हमे समझा यही बहुत है और रही बात शादी के रीती रिवाज़ की तो मेरी ओर से निश्चिन्त हो जाइए जिसकी जोड़ी खुद ईश्वर ने बनाई हो उसे आप किसी भी तरह से गठबंधन में बांधिए मेरी ओर से तो ये रिश्ता सम्पूर्ण है|”

बुआ जी की छुपी आशंका भी इतनी सरलता से सुलझ जाएगी उन्हें लगा ही नहीं था| वे पूरे रीती रिवाज़ से ऋतु की शादी करना चाहती थी बस यही उनकी चाह थी जिसे समर के पिता ने बड़ी आसानी से हरी झंडी दिखा कर उनका बेचैन मन शांत कर दिया|

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एकसाथ छह घरों में खुशियों ने दस्तक दी थी| तीनों दोस्त इस दिन को यादगार बनाना चाहते थे, इसलिए अपनी मंगनी वे एकसाथ करना चाहते थे अब बस उन परिवारों को मनाना शेष था| समर के पिता तो खुद भी ऐसा ही चाहते थे, बुआ जी को भी कोई आपत्ति नही थी| कमिश्नर साहब अपनी लाड़ली की इस बात से भी इनकार न कर सके बल्कि उन्होंने एक अच्छे गेस्टहाउस को भी बुक करने की सोच ली| नूर की सहमति देख उसके अम्मी अब्बू भी बहुत देर तक इंकार न कर सके फिर नजमा आपा ने अहमद मियां को भी इसके लिए मना लिया| तारिख तय हुई 28 नवम्बर|

***

मोहित के लिए अब गाँव में रुके रहना मुश्किल हो गया, वह जल्द से जल्द दोस्तों के पास पहुंचना चाहता था| ताई जी भी ये सुनकर फूली नही समाई और सबने निश्चिन्त समय पर आने का तय किया| पर परजाई जी मोहित के मुंह से जैसे कुछ और भी सुनना चाहती थी पर मोहित और शैफाली का मौन उनकी समझ से परे था|

जाने की विदा बड़ी भावपूर्ण थी| वे शैफाली को गले लगाकर प्यार से उसका माथा चूमती हुई कह रही थी – “क्या कहूँ – तुम्हारा जाना मन स्वीकार ही नही रहा पर रोकने का अधिकार भी तो नही देती !!” वे शैफाली का चेहरा अपनी हथेली में भरी कुछ पल तक निहारती हुई कहती रही – “इस घर को हमेशा तुम्हारा इंतजार रहेगा जब चाहे वापस आ जाना |” वे उसके बैग में लांचा सहेजती हुई कह रही थी – “कम से कम जब ये देखोगी तो हमारी याद जरुर आएगी|”

गुरमीत का नन्हा चेहरा भी आंसूओं से भीग गया था, वह शैफाली की उंगली छोड़ ही नही रही थी तब शैफाली पंजो के बल बैठती उसकी नन्ही नन्ही आँखों को प्यार से पोछती हुई हाथों के इशारे से उसे अपना जाना जरुरी बता रही थी|

आज तो हैपी की वो खिलंदड़ हंसी भी जैसे कहीं खो गई थी, वह अपनी कॉपी से फाड़े पन्ने में बनाये कार्ड को देकर बिना कुछ कहे चला गया, शैफाली अवाक् उसे जाता देखती रही| वह आज चाहकर भी खुद को आंसूओं में डूबने से नही रोक पा रही थी, यही तो वह कभी नही चाहती थी, अब रिश्तों के होने से उसे डर लगने लगा था, ये अनजाना जुड़ाव आज उसकी आँखों से भी नदी बन बह निकला था| बार बार खुद पर ही गुस्सा आ रहा था कि मोहित सही था, वह यहाँ नहीं आती तो सही रहता, गाँव की गीली मिट्टी पर बनी छाप कोई नदी की लहर भी आज नही ढांप पा रही थी| वह ऑंखें कस कर बंदकर शेष आंसू पी गई|

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मंगनी का दिन दूर नही था तो अब उन छहों ने उस दिन के लिए शोपिंग के लिए एक साथ मार्किट जाने का एक दिन तय किया|

वे एकसाथ किसी कपड़े की दुकान में समाते है, एक साथ कई ग्राहक को देख दुकानदार पूर्ण उल्लास से उनका स्वागत करता है| अब तीनों अपने अपने जोड़े के साथ कपड़े देख रहे थे| समर और ऋतु के सामने ड्रेस दिखाता सेल्समैन उनके सामने कई एक से बढ़कर एक कपड़ों का अम्बार लगा देता है| ये देख दोनों एक साथ ही एक दूसरें के लिए कपड़े को पसंद करते एक दूसरे की निगाह में देख मुस्करा पड़ते है| इरशाद और नूर के सामने कपड़ों पर कपड़े निकालता सेल्समैन परेशान हुआ जा रहा था, क्योंकि एक दूसरें में खोए न उनकी ऑंखें एक दूसरे से अलग हो पा रही और न उनके बिंधे हाथ| वे हर ड्रेस पर अपनी मुस्कान से स्वीकृति दे देते और सेल्समैन अपना सर खुजाता उलझ जाता| तो जय और मानसी के साथ लगा सेल्समैन का तो सर ही घूम गया| जय अपनी शेरवानी पसंद कर चुका पर मानसी अपने लिए कोई ड्रेस पसंद ही नहीं कर पा रही थी, कोई ड्रेस उसे बहुत भारी लगती , किसी का रंग बहुत भड़कीला लगता, तो किसी में काम बहुत भारी किया रहता, कोई बहुत बड़ा है तो किसी के साथ चुन्नी लेना उसके बस की बात नहीं| तब से शॉप की हर ड्रेस दिखा दिखा कर सेल्समैन और जय का दिमाग घूम गया पर मानसी को कुछ पसंद नही आ रहा था| फिर ऋतु मानसी के हिसाब की ड्रेस पसंद कराती है तब जाकर बात बनती है तो नूर और इरशाद के सर पर उन सबके खड़े होते दोनों शर्मा कर झट से अपने अपने लिए कोई ड्रेस पसंद कर लेते है|

वहां से निकलते उन सबके चेहरे पर ढेरों गुलाब खिल आए थे| वे अपने जीवन की नई शुरुआत करने जा रहे थे और सबसे खुशनुमा बात ये थी कि इस जिंदगी की राह में वे एक साथ थे बस मोहित की कमी सभी को बहुत खल रही थी, कही न कहीं मन के कोने में एक आरजू थी कि मोहित और शैफाली भी आकर शायद उनमें शामिल हो जाए तो उनका मज़ा चारगुना हो जाए|

***

मोहित का भी गाँव से लौटते मन बड़ा विकल हो उठा था पर नौकरी की मजबूरी उसे उसके स्थान से वापसी करा ही देती| बहुत देर से मौन ही कार में दोनों का मन जैसे अन्दर बवंडर मचाए था, मोहित के कानों में परजाई जी के कहे शब्द अभी तक गूंज रहे थे, वे अपनी दुविधा का उत्तर चाहती थी पर उन दोनों के चेहरे की खामोशी उनकी समझ से परे थी वे बस मोहित से साधिकार यही कह पाई –‘लाला जी ऐसी सोणी कुडी फिर न मिलेगी – रोक लो न |’

अचानक मोहित ने ब्रेक लगा दी और एक झटके में दोनों अपनी अपनी तन्द्रा से बाहर आ गए| शैफाली चौंककर अपनी आँखों से ही मोहित से सवाल करती है तो वह धीरे से मुस्करा कर कहता है – “इस ढाबे में रुके बगैर मैं आगे नही बढ़ता – |”

शैफाली भी मोहित के संग उतर जाती है| वह देखती है सच में ढाबे वाला वही सरदार मोहित को जानता था और वह उसका अपनी भरपूर पंजाबी मुस्कान से स्वागत कर रहा था|

“आहो – कि सेवा करे दसो जी|”

मोहित बस दो चाय का ऑर्डर कर वही बैठ जाता है| शैफाली देखती है कि सरदार जी मोहित को काफी अच्छे से जानता था, वह अपना काम करता करता उससे घर के सभी सदस्यों का हाल चाल भी ले रहा था, ऐसा अपनापन जहाँ कोई पराया था ही नही, सच में लन्दन की सख्त जमी में ऐसे अपनेपन की नमी कभी समा ही नही सकती|

अचानक मोहित की आवाज पर वह देखती है कि ढाबे के कोने में लगे गन्ने के ढेर से एक गन्ने का टुकड़ा उठाकर उसे दांतों से छीलते मोहित कह रहा था – “वाह सरदार जी – बड़ा रसीला है|”

“असी खेत का है|” वह चाय के पैन में चमचा डाल उसे हिलाते हुए कह उठा|

“कुड़ी नु भी खिला लो |”

सरदार के कहने पर वह उस पल अपनी ओर आती शैफाली की ओर देखते चाकू खोजने का उपक्रम करने लगा तो इस पर सरदार जी अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते थोड़ा ज्यादा ही मुस्कराते हुए कहते है – “ऐसे ही खिलाओ – झूठा खान से प्यार बढ्ता है|”

मोहित के हाथ वही थामे रह जाते है वह धीरे से मुस्कराता है अबतक शैफाली उसके पास आ चुकी थी उसने नही जानना चाह कि शैफाली ने उनकी कितनी बात सुनी वह अब उसे गन्ना दिखाते खाने का पूछ रहा था तो वह अपने कंधे उचकाती अपनी अबूझता दिखाती है तो मोहित झट से अपने दांतों से छीलकर उसे गन्ना खाना बताता उसकी ओर बढ़ाता है|

गन्ने के मुहाने पर अपने गुलाबी होंठ धर एक बारगी वह खिलखिला कर हंस पड़ती है और मोहित बरबस उसे देखता रह जाता है|

***

वे सभी साथ में मार्किट घूमते घूमते थककर अब किसी रेस्टोरेंट में आते है| जय अपनी बुलेट तो समर कार पार्किंग में लगाने जाते है तो ऋतु मानसी के साथ वाशरूम जाते इरशाद नूर के साथ अन्दर जाकर जगह तलाशते है| दोपहर और शाम के बीच का समय था तो रेस्टोरेंट में कोई ख़ास भीड़ नही थी| वहां हर टेबल के बीच एक पार्टीशन था| वही किसी टेबल पर इरशाद और नूर बैठ जाते है|

जब वापसी में मानसी वहां आती है तो इरशाद और नूर को देख एक दम से उसके पैर वही स्थिर हो जाते है और चुपचाप वह अपने कदम पीछे कर ऋतु, जय और समर को भी इशारे से वही रुके रहने का इशारा करती है| अब सभी चुपचाप अपनी अपनी हंसी रोके उनकी ओर देख रहे थे और वे दोनों सारी दुनिया से बेखबर आमने सामने बैठे एक दूसरें का हाथ थामे जैसे सारी दुनिया से बेखबर अपने में ही खोए एक दूसरे की आँखों में ही देख रहे थे| ये देख मानसी को एक शरारत सूझी और होंठों पर ऊँगली रख सबको पीछे रहने का इशारा कर अपनी योजना उनके कानों में फुसफुसाती है तो तीनों के होंठों से दबी दबी हंसी निकल जाती है|

रेस्टोरेंट में उनके अलावा के बाकी लोग भी जा चुके थे| रेस्टोरेंट का मालिक दोस्तों की शरारत का प्लान सुन धीरे से मुस्कराया और अपने वेटर को उनकी बात मानने का आँखों से इशारा दे देता है|

वेटर उस रेस्टोरेंट की बत्तियां डीम कर देता है| वे अभी भी एक दूसरे में खोए थे कि एक तेज तेज आवाज़ से उनकी तन्द्रा भंग होती है| वे आवाज पर देख रहे थे कि एक वेटर उन दोनों से बेखबर उनके पास की टेबल को कपडा मार मार कर साफ कर रहा था| ये देख इरशाद एकदम से उछलते हुए पूछता है – “बाकि सब कहाँ है ?”

उसके हडबडाते प्रश्न पर वेटर टेबल को साफ़ करते बड़े इत्मीनान से कह रहा था – “वो तो सर हमे पता नही – काफी दिन से रेस्टोरेंट बंद था – आप अन्दर ही थे क्या !!”

ये सुन नूर और इरशाद की आँखों की पुतली फैली रह गई वह धीरे से दिन तारीख पूछता है इसपर वेटर सहजता से कहता है – “दिन तो पता नही हाँ आज तीस नवम्बर है |”

ये सुनते एकदम से डरके उछलते इरशाद अपनी भीगी भीगी आवाज में कह उठा – “क्या हम इतने दिन से यही है – 28 को मेरी इंगेजमेंट थी |”

इरशाद मरमरी हालत में नूर को देख रहा था तो नूर उसकी तरफ कि तभी एक समवेत खिलखिलाहट से एकसाथ मानसी, जय, ऋतु और समर के एकसाथ नज़र आते उनदोनों को अब अपनी अपनी बेखुदी का ख्याल आते शर्मो हया की लाली उनके चेहरे पर छा जाती है| अपना काम कर वेटर धीरे से वहां से खिसक लेता है|

“नूर 28 नवम्बर के दिन तुम पहुँचो न पहुँचो – इरशाद तो मंगनी कर लेगा |” मानसी की बात सुन इरशाद को अपनी हालत का पता चलते अब उसकी वो हालत होती है कि न उससे खड़े हुए जाता है न भागे|

वे सब एकसाथ खड़े उन दोनों पर हंस रहे थे और वे शर्म से बस दबी हंसी हंस पा रहे थे|

क्रमशः…………..

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