
हमनवां – 50
समर जानता था कि तब से उसके पिता की निगाह बस उसी पर है फिर भी वह जानकर उनको अनदेखा करता टेबल का सामान इधर से उधर करता रहा| वे काफी देर से वही बैठे उनके बीच की ख़ामोशी को तोड़ने की भूमिका तलाशते रहे पर समर उतना ही उनकी ओर से बेरूखी अपनाए रहा| अकस्मात् टेबल में किताबों के बीच रखी एक फोटो फ्रेम तक उनकी नज़र ठहर कर रह जाती है| वे हाथ बढ़ाकर उस तस्वीर को उठाने से खुद को नही रोक पाए|
“ये तस्वीर …!!” वे कुछ पल तक उस तस्वीर को निहारते रहे| समर के बचपन की उसकी माँ के साथ तस्वीर थी, जिसे देखते हुए वे कहीं खो गए – “ये तस्वीर याद है मुझे |”
“जी याद है आपने ही ली थी |” समर बड़ी बेरुखी से कहता है|
वे अभी भी उस तस्वीर को निहार रहे थे मानों तस्वीर के आस पास अदृश्य रूप से वे भी कहीं मौजूद थे|
“समर तुम्हें याद है…|”
“याद है – सब मुझे याद है पर आपको कुछ याद नहीं रहता |” वे अपनी बात पूरी भी नही कर पाए और समर के शब्द वज्र से उनके ह्रदय को तार तार करने लगे – “आपको नहीं याद कि अपने अंतिम समय में माँ आपको कितना याद कर रही थी पर आपका तो कही अता पता ही नहीं था, आपको नही याद कि कितने समय तक उनके बाद मैंने भी आपका इंतजार किया पर आप बहुत देर से आए…सब याद है मुझे|”
कहते कहते समर के शब्द लडखडा गए, वह खामोश होता उनके विपरीत देखने लगा, इससे वह नही देख पाया कि अब उसके नजदीक आते वे उससे कह रहे थे –
“मैं अपने बारे में कोई सफाई नही पेश करूँगा – सच में जब और जहाँ मेरी जरुरत थी मैं वही तुम्हारे पास मौजूद नहीं था लेकिन बिलकुल इस तस्वीर की तरह |” वे तस्वीर उसकी आँखों के सामने करते हुए कहते रहे – “बिलकुल अदृश्य रूप से लेकिन था सदा तुम्हारे आस पास बेटा|” उनके शब्द भी गले तक आते रुंध गए थे जैसे|
कुछ पल तक उन दोनों के बीच नीरव ख़ामोशी बनी रही, जिसमें वे दोनों जैसे अतीत के गलियारे में चुपचाप निकल गए और मन ही मन कुछ सोचते कहीं गुम हो गए थे|
तभी एक आहट से उन दोनों की नज़र साथ में कमरे की देहरी तक जाती है जहाँ अब ऋतु अपनी सौम्य मुस्कान के साथ खड़ी थी| उसके हाथों के बीच कुछ था|
“आप यहाँ है – देखिए मैं आपके लिए कुछ बना कर लाई थी|”
“अरे ऋतु तुमने तो मुझे इतना अच्छा अच्छा खाने की आदत लगा दी अब कल से जंगल में कैसे रहूँगा मैं|” वे अपनी चिर परिचित हंसी से हँसते हुए उसके हाथों से वह खाने की प्लेट ले लेते है|
“आप वापस जा रहे है |” ऋतु हैरान उनका तो समर का गंभीर चेहरा पढ़ती हुई पूछती है|
वे स्थिति को समझते ऋतु को इशारे से अपने पास बैठाते हुए धीरे से कहते है – “जरुरी है – नहीं तो मेरा दिल जानता है कि ये जाना मुझपर कितना भारी गुजर रहा है|”
ऋतु देखती है कि समर अब उठकर जाने लगता है तो वह उसका जाते हाथ थामकर अपनी आँखों से वहीँ बैठने का निवेदन करती है, समर पुनः बैठ जाता है| ये देख वे धीरे से मुस्करा देते है|
“आप कल ही जा रहे है ?” वह धीरे से फिर पूछती है|
“हाँ – पर आज कुछ देना चाहता हूँ|” कहते हुए वे अपनी पॉकेट से कोई छोटी सी डिब्बी निकालकर उसे उनके सामने खोलते हुए कहते है – “ये पता है क्या है – ये समर की माँ की अंगूठी है |”
ऋतु पाती है कि उस पल समर के चश्मे के पीछे उसकी ऑंखें अब बहुत बोझिल हो रही थी, इससे उसका मन भी आद्र हो उठा|
“ये हमारी शादी की अंगूठी है पर पता है ये इसलिए खास नही है इसके ख़ास होने के पीछे एक कहानी है |” वे उस अंगूठी को हवा में उठाए उठाए जैसे अतीत के गलियारे से होते कहीं दूर निकले जा रहे थे – “जब भी वो मुझसे नाराज होती थी झट से इस अंगूठी पर हाथ धर लेती थी और मैं उसके अपने जीवन से जाने के डर से उसकी हर बात मान लेता था पर उसने कभी भी इस अंगूठी को अपनी उंगली से नहीं उतारा पर अपने जाने की शायद जब उसे अनुभूति हुई तब उसने इसे उतार कर एक चिट्ठी में संभाल कर रख दिया – उस चिट्ठी में उसकी आखिरी ख्वाहिश थी कि ये अंगूठी मैं समर की होने वाली वाईफ को दूँ – और आज ये वक़्त आ गया |” वे अब ऋतु की ओर देखने लगे|
“सोचता हूँ जब मैं उसके पास नहीं रहता था तब वो कितनी बार ही इस अंगूठी को अपनी उंगली में आगे पीछे करती होगी पर मैं फिर भी नहीं आ पाता था उसके पास पर उसकी आखिरी ख्वाहिश को पूरा कर शायद मैं अपने इस गुनाह को कुछ कम कर सकूँ|”
ऋतु भरी आँखों से उनका हाथ पकड़ लेती है, वे अभी भी धीरे धीरे मुस्करा रहे थे – “मैं तुम्हारी सगाई में भी चाहकर मौजूद नही रह पा रहा |” वे अंगूठी ऋतु की हथेली के बीच रख देते है| ऋतु उस पल अंगूठी को देखती समर की ओर देखती है, और जैसे की हमेशा ही मौन वह उसकी अनकही सब जान समझ लेता, समर उसकी हथेली से अंगूठी लेलेता है|
उन दोनों के बीच बैठे वे देखते है कि हवा में रखे ऋतु के हाथ को थामे अब वह उसकी उंगली में वह अंगूठी पहना रहा था ये देख वे झट से अपनी उंगली की अंगूठी ऋतु के हाथों में पकड़ा देते है, जिसे अब वह समर की उंगली में पहना कर होठों के किनारों से शरमा जाती है| उन तीनों के मौन ने जैसे सब कुछ कह दिया हो, दिल तक उतरे अहसासों को शब्दों की जरुरत नहीं होती, वे मौन को ही अपने अन्दर स्वतः उतार लेते है| अब उन तीनों की मुस्काने एक सार हो उठी थी|
“कौन कहता है मैं तुम्हारी सगाई में मौजूद नही रहूँगा – अब तो सदा मैं इस बंधन में तुम्हारे बीच रहूँगा |” कहते हुए वे अपनी दोनों बाँहों के घेरे में ऋतु और समर को समेट लेते है|
***
आपा ने अपने आस पास जैसे सारा बाज़ार ही सजा लिया था, हर तरह का सामान जो वह खरीद सकती थी खरीद रखा था, जिसे वे अपने सामने बैठे इरशाद को दिखा रही थी| पर इरशाद हर बात में बस हांमी भर देता, अब वे एक छोटी डिब्बी की अंगूठी उसे दिखा रही थी –
“ये कैसी है?”
“हूँ अच्छी है |”
“और ये ?” वे उसे रखती अब दूसरी दिखा रही थी |
“हूँ – अच्छी है |”
“इरशाद पहली ज्यादा अच्छी है या दूसरी ?” वे उसे हौले से झंझोड़ती हुई पूछती है|
“अप्पी सब अच्छा है – आपकी हर पसंद बहुत उम्दा है |” वह बड़े प्यार से मुस्कराता उनका कन्धा थाम लेता है – “आपकी किसी चीज पर इंकार किया है मैंने कभी !!”
ये सुनते कुछ क्षण वे इरशाद की विश्वास भरी आँखों में देखती रही| इरशाद के चेहरे पर भरपूर मुस्कान थी|
“तो कुछ और कहूँ तो मानोगे ?”
वे डरती थी इरशाद के इंकार से कि कहीं कुछ ऐसा न कह दे जो इरशाद को अपना मन मार कर उनकी बात रखती पड़े, वे चाहती थी इरशाद खुश रहे, उसके जेहन में उनकी कहीं कोई बात हुक्म जैसी नाज़िर न हो|
“कहिए अप्पी !!”
“मेरी एक खवाहिश थी कि तुम्हारा निकाह इस कोठी से हो – मरहूम अब्बू की भी यही खवाहिश थी |”
“जैसा आप चाहे |”
“क्या सच |” वे एक दम से जैसे ख़ुशी से नाच उठी|
“अप्पी मैं कभी आपकी किसी बात से इनकार करता हूँ क्या पर कुछ वज़ह है जिसके कारण…|”
“अरे वाह आपने तो पूरी बाज़ार सजा रखी है|” दूर से ही अहमद मियां उनकी तरफ आते कह रहे थे|
इरशाद अपनी बात अधूरी छोड़ अब उनकी तरफ देखता हुआ उठकर उन्हें सलाम करता है|
“कैसे है इरशाद साहब – और कैसी चल रही है सब तैयारियां ?” कहते हुए वे उन दोनों के ठीक सामने आकर बैठ जाते है|
नज़मा आपा अपने चेहरे पर भरपूर मुस्कान लाती हुई कहने लगी – “बड़ी अच्छी चल रही है और यही दिखाने मैंने इरशाद को बुलाया था|”
“हूं – बिन बुलाए भी आ जाया करे आप |”
“जी |” इरशाद धीरे से अहमद मियां की बात पर हाँ कहता इधर उधर देखते हुए उठने का उपक्रम करने लगा ये देख आपा के चेहरे का रंग फीका पड़ने लगा|
“अरे कहाँ चले हमे आज आपकी एक सलाह चाहिए थी|”
ये सुन इरशाद के साथ साथ नज़मा भी उनकी तरफ आश्चर्य से देखने लगी|
“अब हम कारखाने के काम को बदलना चाहते है – दरअसल हमने सोचा जिस काम में मजा न हो वो काम बहुत दिन तक नही चल सकता – तो सोचते है आप से पूछे कि हम कौन सा काम करे जिसे करके हमारा दिल खुश रहे ?”
वे सहजता से इरशाद की ओर देखने लगे इसके विपरीत इरशाद के चेहरे के भाव कठोर होने लगे, उसे लग रहा था कि हमेशा की तरह जीजू भाई जरुर बातों बातों में उसे नीचा दिखा रहे होंगे|
“बताए इरशाद कुछ ऐसा काम जो सच में हम दिल से कर पाए – वैसे हम सोच रहे थे कि हमे किताबे पढ़ना पसंद है तो क्यों न कोई पब्लिशिंग हाउस खोल ले – अब लिख नही पाएँगे तो बहुत सारा पढ़ने को तो मिलेगा |”
उनकी मुस्कान पर इरशाद आज सच में कुछ समझ नही पा रहा था|
“तो हमे लगता है आप ही हमे बढ़िया सुझाव दे सकते है – तो कोई है जो ये पब्लिशिंग के काम में हमारा कन्धा बन सके – कोई आप सा ही !!” ये कहते हुए वे बड़ी आस से अब इरशाद को देखने लगे|
एक पल तो उनके सामने बैठे इरशाद और नज़मा की ऑंखें बस हैरानगी में फैली रह गई, दिमाग शून्य हो गया, वे समझ नही पाए कि उनके सामने अहमद मियां ही है, क्या सच में उनके अन्दर कुछ बदलाव आ रहा था जिससे वे इरशाद की ओर कुछ झुकने लगे थे|
“तो इरशाद अगर आपके पास कुछ समय हो तो हमे मशवरा दीजिएगा – हकीकत में हम बदलना चाहते है ……अपना काम…|” कहते हुए उनकी आँखों की चमक दोगुना हो उठी और इरशाद अपनी आँखों से सहमति देता मुस्करा दिया|
ऐसा दृश्य देख नज़मा आपा की आँखों के कोर भीग आए|
***
रात के खाने में समर के पिता के साथ, समर, ऋतु, जय, मानसी, इरशाद और नाज़ के साथ खाने की महफ़िल सजी थी| हर बार की तरह उसके साथ अप्पी का दिया टिफिन था तो कुछ ऋतु का बनाया हुआ था, जिसका सभी लुफ्त उठा रहे थे|
समर के डैड की नज़र उनकी प्लेट पर जब रहती तो इरशाद झट से अपने हाथ का कौर नूर को खिलाकर उसके नर्म होंठों की छूअन से मुस्करा उठता, तो साथ साथ अगल बगल बैठा जय मानसी का हाथ कसकर पकडे था, जिससे जय अब उलटे हाथ से खाना खा रहा था| समर और ऋतु आमने आमने बैठे एक दूसरें की नज़रों में इस कदर खोए थे कि उनका खाना जस का तस रखा हुआ था|
समर के डैड अपनी छुपी ऑंखें से उन तीनों जोड़ों को उनमे गुम हुए देखकर मंद मंद मुस्करा रहे थे, इससे उनकी तन्द्रा को तोड़ने वे तेज स्वर में कहने लगे –
“वाह आज का खाना तो लाजवाब है – मुझे तो अपनी उंगलियाँ चाटने पर मजबूर कर दिया |” वे सच में अपनी उंगलियाँ चाटते हुए बोल रहे थे – “भई लकी हो जो इतना टेस्टी खाना रोज खाते हो|” समर के पिता उन सबको एक सरसरी निगाह से देख मुस्करा रहे थे|
इसपर जय तुरंत कह उठा – “अरे अंकल रोज़ रोज़ ऐसा कहाँ नसीब – अकसर तो हमे डॉक्टर साहब के जले पराठे खाने पड़ते |”
“हाँ जले ही सही पर मिलते तो थे तुम लोग से तो वो भी नही होता |”
समर की बात सुन सभी की हंसी छूट गई|
“हाँ भाई किचेन की खिड़की को थैंक्स कहना तो बनता ही है |” जय ऋतु की ओर देख कसकर हंस दिया तो ऋतु सबकी नज़रों से छुपती धीरे से मुस्करा दी|
“किचेन की खिड़की !!!” समर के डैड अब हैरत से सबकी ओर देखने लगे पर सब धीरे धीरे हंसते रहे|
“अरे अंकल सुबह सुबह क्या व्यू दिखता है |”
“ओह्ह !!”
उस पल सबकी खिलखिलाहट से जैसे कमरा गूंज उठा| तभी जय के मोबाईल पर मेसेज टोन से सब उसकी ओर देखने लगे |
“मोहित का मेसेज है – कितने कॉल किए तो अब जाकर मेसेज किया कि पांच मिनट में आ रहा|”
“दिन से मोहित नही दिखा – है कहाँ ?” समर के डैड पूछते है|
“हाँ उसकी कमी बहुत खल रही है काश जल्दी से शैफाली के साथ आ जाए |” ऋतु कहती है तो इरशाद उसकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ कहता है – “कहा तो था जाते समय – |”
तभी कार रुकने की आवाज के साथ सबका ध्यान दरवाजे की ओर ठहर जाता है और उसके अगले कुछ पल में मोहित को देहरी पर खड़ा देख सबके चेहरे खिल उठते है, वे सभी उसके पीछे देखते अब शैफाली का इंतजार करने लगते है|
“कहाँ रहे मोहित बेटा – हम सब तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे|”
“कार की सर्विसिंग में टाइम लग गया –|” बेहद सपाट भाव से कहता है मोहित – “आता हूँ अभी अंकल |”
कहता हुआ मोहित अन्दर जाने लगता है मानसी एकदम से खड़ी होती हुई कहती है – “और शैफाली – वो कहाँ है मोहित ?”
“तुम गए नही उसे लेने !!” इरशाद भी उचकता हुआ पूछता है|
“बेटा लिवा लाते तो आज शैफाली से भी मिल लेता मैं – वैसे मैं तो कहता हूँ तुम भी इनके साथ निपट लो – देखो मुझे डेट्स की बड़ी प्रोब्लेम है |” कहकर वे हंस देते है|
“मेरे पास टाइम नही था |” पर इसके विपरीत मोहित सपाट भाव से कहकर तेज कदम से अन्दर चला जाता है|
“इसको क्या हुआ !!”
“पता होता तो मैं ही लिवा लाती उसे |”
वे सभी परेशान अब एक दूसरें का चेहरा देखने लगे, तो समर के डैड सबको सहज करते हुए कहते है – “हो सकता है मोहित ने हमारे लिए कोई सरप्राइज रखा हो – वेट एंड वाच |”
क्रमशः……