
हमनवां – 6
इरशाद धीरे से उस बड़े सी कोठी का मुख्य द्वारा खिसका कर अन्दर आता है| मुख्य द्वार से पत्थरों के पथ पर धीरे धीरे चलता वह दरवाजे तक पहुंचा ही था कि दरवाज़ा एक झटके से खुल जाता है| वह चौंक कर सामने देखता है, उसके सामने दुप्पटे से करीने से सर ढके उसकी नज़मा आपा खड़ी मुस्करा रही थी| अपनी मुस्कान में शिकायत का हल्का पुट लिए वे अब कह रही थी – “दस फोन के बाद ही आपा को अपने भाई के एक दीदार होते है|”
“सलाम वालेकुम|” इरशाद झुककर उनको सलाम करता है|
“वालेकुम सलाम, खुश रहिए – अन्दर आ जाए|’ कहती हुई दरवाज़े के एक किनारे हो जाती है|
इरशाद आते ही पहले ये तसदीक़ कर लेता है कि जीजू भाई घर पर है या नहीं| अगर नहीं तो कुछ पल आराम से रुकेगा नहीं तो वहां से जल्दी निकलने का कोई बहाना बनाना शुरू कर देगा, इस तकरार को नज़मा जानती थी और खूब समझती भी थी, जिसकी नींव उनके मरहूम अब्बाजान के समय से ही उनके बीच पड़ चुकी थी|
“नहीं है कल शाम तक आएँगे|” घर में इधर उधर देखती उसकी आँखों को मरहम लगाती है|
“तो आपको क्या लगता है मैं उनसे कोई खौफ़ज़दा हूँ – बस यूँही उनके रहने से ढ़ेरों जवाबदेही करनी पड़ती है मुझे|” आराम से सोफे पर धँसता हुआ कहता है|
“अच्छा !!” आपा हौले से हँसती है – “चलो मैं अपनी तसल्ली के लिए ही बता दूँ कि अब कल ही जाएँगे आप, समझे|’
आपा भी वहीँ सामने बेंत की कुर्सी पर जम जाती है, तभी वहां नौकर हाथ में बड़ी सी ट्रे में ढ़ेरों खाने के डोंगों के साथ आता इरशाद को सलाम करता है|
इरशाद रात के खाने के बाद दो मंजिला कोठी की छत पर टहल रहा था वहीँ पास ही कुर्सी पर आपा बैठी आसमान निहार रही थी| अभी कुछ देर पहले दोनों बातें करते करते जैसे अपने अतीत की गलियों में संग संग दौड़ गए थे| आपा नन्हे इरशाद की उंगली थामे उसे छत पर से खुले आसमान का अकेला चाँद दिखाती उसे बहला रही थी| कुछ ही पल में नन्हा इरशाद मारे ख़ुशी के ताली बजा बजा कर उछलने लगता है| आपा हँस पड़ती है|
“हाँ -|” इरशाद को लगा आपा कुछ कह रही है, वह पूछ बैठता है – “क्या कुछ कहा आपने अप्पी..?”
अँधेरी ठंडी रात में अतीत की एक गर्म साँस छोड़ती आपा कहती है – “इरशाद कितना बदल गए हो तुम – एक ही शहर में कितने अनजान हो गए हो मेरे लिए – क्यों – आखिर तुम्हारे सारे शिकवे गिले तो अहमद मियां से है फिर मुझसे इतनी तल्खी क्यों..!!” आपा का दिल भर आया|
“नहीं अप्पी कभी नहीं आपसे मुझे कोई शिकायत नहीं पर जीजू भाई ..|” इरशाद के शब्द जैसे उसका जबड़ा कसे दे रहे थे, वह सारे शब्द जब्त कर लेना चाहता था लेकिन दर्द टीस मार उठा और शब्दों में बह निकला – “अब्बू ने मुझे और न मेरे सपने को कभी नहीं समझा बस यूँ समझिये अप्पी जीजू भाई भी यही रस्म अदायगी कर रहे है मेरे साथ – उनसे मिलकर लगता है जैसे शक्ल बदल हो पर प्रश्न करती ऑंखें वही की वही है आखिर मैं कब तक उनके सवालों के जवाब देता रहूँगा -|”
आपा को कुछ कहते न बना वे बस फिर खुले आसमान की ओर देखने लगी, तारो भरी रात में एक अकेला चाँद|
“आखिर वे तो अब्बू का बिजनेस सम्भाल रहे है न फिर मुझे नहीं करना वही काम – आखिर मैंने कोशिश की थी न कि किसी तरह से उस चमड़े के कारखाने में रम जाऊं पर नहीं लगा मेरा मन वहां – मैं अपनी जिंदगी घुट घुट कर नही बल्कि खुल कर जीना चाहता हूँ – उन्हें तो अब्बू की ही तरह मेरी हर बात नागवार गुज़रती है – मैं किसके साथ रह रहा हूँ ये भी वे तय करना चाहते है|” इरशाद तीव्र गुस्से से अपनी बात खत्म करता है और सामने आपा की आँखों से खुले आसमान की ओर देखने लगता है| एक पल इरशाद का ध्यान खुले आसमान तक छूते दालान के पेड़ों तक जाता है जो अँधेरे में किसी छाया से धीरे धीरे हिलने लगे थे|
बहुत देर की चुप्पी पर आपा इरशाद को पुकारती है – “इरशाद तुम्हे याद है ऐसे छुटपन में तुम मेरे साथ घंटो बैठे कितने सवाल करते रहते और मैं हर बार कोई कहानी सुनाकर तुम्हेँ सवालो से भटकाती रहती लेकिन तुम्हारे सवाल हमेशा किसी रेल से गुज़रते रहते और मैं रास्तों सी उल्टा दौड़ जाती – आज कितने समय बाद तुम मेरे साथ हो और आज भी तुम्हारे सवाल से मैं तुम्हेँ भटकाना चाहती हूँ|” कहते कहते आपा की आवाज मध्यम होने लगती है, इस छुपे अँधेरे में इरशाद अपनी अप्पी की आँखों के भरे कोरे नहीं देख पाता लेकिन आवाज़ को महसूसते वह आपा के पास आता है – “नहीं करूँगा कोई सवाल पर एक आखिरी सवाल कर सकता हूँ – क्या कल बिरयानी बन सकती है?’ आपा की आंखे अँधेरे में भी चमक उठती है वह पास खड़े इरशाद की हथेली थामती हुई उसे अपने माथे से लगा लेती है| अब कोई सवाल कोई जवाब नहीं था उनके बीच बस खामोशियों की खनकती आवाज़ थी|
***
अपनी बुलेट को ठीक से लगा कर हैंडल में लगे शीशे की ओर झुककर अपना चेहरा फिर शरीर को थोड़ा पीछे हटाकर अपनी वर्दी देखता है फिर दो स्टार लगे बैज पर हाथ फिराता कुछ मुस्कराता है| जय कमिश्नर के बंगले के बाहर था, उसकी नज़र स्टैंड पर खड़ी गाड़ियों को एक नज़र देखती है| वहीँ कई गाड़ियों में मानसी की स्कूटी भी मौजूद थी| मानसी का ख्याल दिमाग में आते एक गहरी साँस छोड़ते वह अपने कंधो को सीधा कर अन्दर की ओर चल देता है|
आज कोई खास मीटिंग थी जिसे न जाने क्यों कमिश्नर के बंगले में रखा गया था खैर यहाँ आना जय की चाह में मौजूद ही रहता था| जय को उधर आता देख एक कांस्टेबल जल्दी से जय के सामने आकर उसे आगे के एक बड़े कमरे की ओर जाने का रास्ता दिखाता है| जय रफ़्तार से वहां पहुँचता है, उस बड़े कमरे के ठीक सामने की ओर एक बड़ी मेज़ के इर्द गिर्द बैठे डीएसपी के बगल की कुर्सी पर एएसपी किसी फाइल में मशगूल थे जो जय के सैल्यूट करने पर उसकी ओर देखते है| वह छुपी नज़रो से पूरे कमरे को देखता है वहां उन तीनों के अलावा कोई मौजूद नहीं था|
“क्या ये यही सब इंस्पेक्टर..|” कुछ पल रूककर उसके सीने की नेमप्लेट पढ़ते हुए – “जय त्रिपाठी |”
फिर दोनों आपस में सर जोड़े धीरे धीरे कुछ फुसफुसाते है| उनको देखकर जय को लग रहा है जैसे कोई सजा देने की तैयारी हो, धड़कने धौकनी हुई जा रही थी, मानसी…!! वह ऊपरी तौर पर तन कर खड़ा अन्दर से अपनी बेकाबू धड़कनों पर काबू पाने की कोशिश कर ही रहा था कि उसकी नज़र उनके पीछे की एक छोटी कांच की खिड़की पर अटक जाती है| मानसी..!! मानसी उस बंद खिड़की के शीशे के पार से अपनी हवाई चुम्बन उस तक पहुंचा रही थी| जय बार बार अपना ध्यान सामने की कुर्सियों तक लाता लेकिन मन किसी चोर सा उनको फलांग कर पीछे शीशे की परछाई से चिपक जाता| उसका तना चेहरा अपनी मुस्कान पर किसी तरह से काबू किए था|
“जय त्रिपाठी –|” झट से आवाज़ की तरफ उसका ध्यान जाता है|
“आपको सही में लगता है कि इतने इम्पोर्टेन्ट काम के लिए आपकी ये पसंद मुफीद है?” प्रश्नात्मक चेहरे से वे उसकी तरफ देखते है| जय को लगा उसकी चोरी पकड़ी जा चुकी है|
“हाँ नया खून है – काम करने के तरीके इतने गंभीर नहीं पर…|” वे एक बार फिर जय के चेहरे की ओर ध्यानपूर्वक देखते है| उसकी आँखों को इधर उधर मटकते शायद उनकी नज़र भांप गई थी|
“जय त्रिपाठी..|” आवाज़ पर फिर उसका सारा ध्यान सामने की ओर जाता है|
वे दोनों उस पर नज़र गड़ाए अपनी बात बारी बारी से रख रहे थे|
“तो आप समझ गए न – कभी कभी कुछ सरकारी काम हमे अपनी लीक से हट कर अंजाम देने पड़ते है – हम इसे रिपोर्ट भी नहीं कर रहे क्योंकि एक ही गिरोह के इन चार लोगो की हत्या को जिस आसानी से महज एक दुर्घटना दिखाने का प्रयास किया गया है उससे या तो कोई नम्बर वन होने का खेल चुपचाप खेल रहा है या फिर कोई बहुत बड़ा षडयंत्र चल रहा है –|
“डीआईजी सर चाहते है कि इस टीम में झुझारू लोग रहे जो बहुत ही सतर्कता के साथ इस मिशन को अंजाम दे और सच की पड़ताल कर सके|”
“इस फाइल में सारी डिटेल है – परसों तक मेरे ऑफिस में रिपोर्ट करो|” वे फाइल उसकी ओर बढ़ाकर पुनः एक दूसरे की ओर देखने लगते है|
जय यंत्रवत फाइल लेकर सैल्यूट कर बाहर निकल जाता है| बाहर निकल कर अपने तने सीने को ढीला करते देर की रोकी साँस छोड़ता हुआ अपनी बुलेट तक आता है| झट से बुलेट पर बैठते हैलमेट लगाते उसकी नज़रे बंगले के उपरी तल्ले पर जाती है जहाँ मानसी खड़ी थी, सुबह की ताज़ी धूप किसी के चेहरे पर खिली थी जिसे देख उसका मन भी तरोताज़ा हो उठा|
***
बहुत कहने पर इरशाद ने आपा की लायी शेरवानी पहनी थी जिसका पायजामा उसने गर्मी के कारण थोड़ा टखने तक कर रखा था जिसे देख आपा की हँसी छूट गई|
“बचपन में भी चिपका पायजामा हमेशा ऐसे ही कर लेते थे, अभी भी नहीं बदले|” आपा हँसी में दोहरी हुई जा रही थी|
“क्या अप्पी एक तो पहनने को भी कहती हो फिर हँसती भी हो आप|” नन्हे बच्चे सा इरशाद रूठ गया|
इसी हंसी फुहार के बीच चंद क्षणों में ही नौकरों ने खाने की मेज़ पकवानों से सजा दी| ये देख इरशाद कह उठा – “क्या अप्पी जब भी आता हूँ आप तो पकवानों की कतार खड़ी कर देती है जैसे ईद की दावत हो|”
“ईद के चाँद जैसे ही तो आते हो|”
नजमा के चेहरे पर ढेर शिकायत उतर आई|
“आपा अब मैं अकेला थोड़े ही हूँ|” कहता हुआ कुर्सी पर बैठ जाता है|
“हाँ हाँ पता है – फ़िक्र न करे आपके दोस्तों की दावत का भी पूरा इंतजाम कर रखा है मैंने|” कहती हुई आपा हर डोंगे पर से ढक्कन हटा देती है| फिर इरशाद की थाली में व्यंजन डाल उसे खाते हुए देखती वहीँ बैठती अपनी आँखों को तृप्त करती रहती है|
सहसा कमरे के बाहर किसी के आमद की आवाज़ पर दोनों का ध्यान दरवाजे की तरफ जाता है|
अहमद मियां के वहां प्रवेश करते नौकर जल्दी से आगे बढ़ता हुआ उनके हाथ में पकड़ी फाइल लेता हुआ किनारे हो जाता है|
इरशाद नज़र उठाकर उनकी ओर देखता है दोनों की नज़रे मिलती है| नज़मा उनकी तरफ बढ़ती है| इरशाद उठकर उनको सलाम करता है|
“अरे अरे आप खाइए खाते वक़्त नहीं उठते|”
“कैसा रहा आपका सफ़र?”
नज़मा की तरफ हल्के से मुस्करा कर देखते है – “बहुत अच्छा रहा..|” फिर चलते हुए इरशाद की तरफ एक नज़र डालते हुए पूछते है – “कैसे है आप – ?”
“सब खैरियत है – आप तो शाम को आने वाले थे|” इरशाद हिचकिचाते हुए कहता है|
“नही हम तो इसी वक़्त आने वाले थे – आपको ऐसा क्यों लगा?”
“नही वो अभी हम थोड़ी देर में निकलने वाले थे तो अच्छा हुआ आपसे मुलाकात हो गई|” कहता हुआ इरशाद एक नज़र आपा की ओर डालता फिर प्लेट की तरफ झुक जाता है|
“चलिए आप शुरू रहे – हम अभी आते है|” अहमद मियां विपरीत दरवाजे में समा जाते है, उनके पीछे पीछे नौकर भी फाइल लिए चलता जाता है|
उनके जाते नज़मा झट से इरशाद के पास आती उसकी तरफ हौले से झुकती हुई पूछतीं है – “ये क्या आपने तो शाम तक रुकने का वादा किया था – अपनी आपा से झूठ कहा?”
“और आपने…!!” इरशाद आपा की ओर नज़र उठाकर देखता है|
“समझते क्यों नही मेरे भाई – मुझे दो हिस्सों में मत बांटो |” नज़मा भरी आँखों से इरशाद की ओर देखती है|
“अप्पी मैं नही चाहता कि हर बार हमारे बीच कोई विवाद हो – जिसके लिए जरुरी है कि हमारा आमना सामना न हो उतना ही अच्छा है|” इरशाद प्लेट में आधा खाया आधा छोड़कर उठ जाता है|
“अप्पी जब भी याद करोगी आप अपने इरशाद को सामने पाओगी पर खुदा के वास्ते अभी और रुकने को मत बोलिएगा|” इरशाद खड़ा हो चुका था| नज़मा परेशान नज़रों से उसकी ओर ताक रही थी| इरशाद अब हाथ धोने के स्थान की ओर बढ़ जाता है नज़मा उसे जाता हुआ देखती रह जाती है|
क्रमशः………..