Kahanikacarvan

हमनवां – 60

मानसी अपने घर पहुँचने के काफी करीब के रास्ते पर थी पर सामने आड़ी तिरछी खड़ी कार देख वह हॉर्न देती वही ठहर जाती है| वह देखती है कि कार का इंजन बंद था और उससे कोई निकल रहा था|

मानसी हैरान उस चेहरे को देखती हुई झट से पहचान लेती है, वह गौतम था जो हाथ जोड़े अब ठीक उसके सामने खड़ा था|

“एक आखिरी बार सर आपसे मिलना चाहते है – |” वह जवाब की प्रतीक्षा में खड़ा रहा|

मानसी की ऑंखें गुस्से से भर उठी|

“अब क्या चाहते है – मुझे नही मिलना|”

गौतम शायद मानसी का जवाब पहले से जानता था, इसलिए कुछ न कहता हुआ वह बस उसकी नज़रो के सामने से थोडा सरक जाता है जिससे मानसी अब उसके पीछे अंश को खड़ा पाती है, ये देख उसकी ऑंखें हैरत में फैली रह जाती है|

“आप पापा से मिल लो न प्लीज़..|” उन अबोध आँखों का निवेदन उसका अंतर्मन हिला देता है|

“अब बस यही रह गया कि बच्चे का सहारा लो |” मानसी इसके आगे कुछ नही कहती और गौतम झट से आगे आता हुआ कहता है – “आप हमारे साथ बैठ जाइए मैं स्कूटी आपके घर तक पहुंचवा दूँगा|”

मानसी के पास अब ज्यादा कुछ कहने को नहीं था वह ख़ामोशी से बात मानती कार की तरफ बढ़ जाती है|

***

सबसे मजबूत इंसान भी वक़्त के हाथों कभी कभी सबसे कमजोर साबित हो जाता है, और यही हुआ ठीक अश्विन कुमार के साथ, उनके लिए अब इस शहर में रहना भी मुश्किल हो गया…न रिश्ते बचा पाए और न पद…और इसकी गहन निराशा अब उनके पोर पोर पर आवंटित हो गई थी|

वे पीठ पर हाथ बांधें मानसी का ही इंतजार कर रहे थे, उन्हें यकीन नही था कि मानसी उनकी बात सुनेगी भी इसलिए न चाहते हुए भी अंश का सहारा लेना उन्हें खुद के जमीर पर भी भारी गुज़र रहा था पर बेरहम वक़्त उनसे वो सब करा ले रहा था, जो कभी उनका गुरुर था|

अब उस बड़े कमरे में अश्विन कुमार के सामने मानसी चुपचाप खड़ी अन्यत्र देख रही थी|

वे उसकी ओर पलटते हुए अपने हाथ जोड़ लेते है – “तुम भलेहि माफ़ मत करना फिर भी न चाहते हुए भी तुम्हारी खुशहाल जिंदगी में अज़ाब लाने का गुनाहगार तो मैं ही कहलाऊंगा – हो सके तो कभी माफ़ कर देना|”

मानसी बिना किसी प्रतिक्रिया के वैसे ही खड़ी रही|

वे वही थमे कहने लगे –

“कल मैं अंश के साथ ये शहर सदा के लिए छोड़कर जा रहा हूँ इसलिए सोचा कि मेरे जीवन का सच तुम्हें बताना भी जरुरी है – तुम मुझपर कितना यकीन कर पाओगी नही पता पर मेरे कहे एक एक सच्चे लफ़्ज की आज से तुम भी गवाह होगी|”

एक गहरा उच्छवास छोड़ते हुए वे कहते रहे..

“सच बहुत बेरहम होता है उतनी ही बेरहमी उसे अपनाना भी पड़ता है – अभाव में पलने वाले अपने जीवन की कमी को बहुत अच्छे से जान पाते है कि क्या उनकी जिंदगी से चला गया – एक पंद्रह साल के लड़के के सामने खुद के खाने रहने की समस्या से कही ज्यादा उसकी उंगली थामे उसके पांच साल के भाई की जिंदगी का प्रश्न था – जिसे वह अनाथों की तरह भीड़ के पीछे पीछे भीख मांगते मांगते कभी नहीं देख सकता था – ये उस वक़्त का कड़वा सच था जो ये बेरहम दुनिया आराम से आंख खोले देखती रही इसलिए अब संघर्ष की बारी सिर्फ मेरी थी – मैंने सही गलत कोई रास्ता नही देखा – देखा तो दो वक़्त का मिलने वाला खाना जो अपने भाई के लिए जुटाना मेरा एक मात्र फ़र्ज़ बन चुका था – तब – तब इस दुनिया को अपने नियमों कानूनों की फ़िक्र नही हुई|” वे तेजी से मानसी की ओर पलटते हुए कहते रहे – “कोई समर्थ हाथ हमे सहारा देने आगे नहीं आया और मैं अनजाने ही उस काली दुनिया का हिस्सा बनता चला गया|”

मानसी हैरान पूर्ण ख़ामोशी से उनकी बातें सुन रही थी|

“जितने गलत धंधे होते है उस काली दुनिया में सब खुलकर होते है वो भी सफ़ेद पोशों की कॉलर के नीचे पर उन्हें कोई फर्क नही पड़ता तब तक जब तक बात उनके खींचे दायरे से बाहर नही आ जाती तब अकसर उनकी बलि दे दी जाती है जो बस उनकी हाथों की कठपुतली मात्र होते है – मुझे नहीं पता कि सिर्फ एक पैकेट को दूसरी जगह पहुँचाने पर वे इतनी रकम क्यों मुझे दे रहे है और न मुझे पता था कि कितने ही अनजान बच्चों की भीड़ को मुझे उन्हें लेकर अपने साथ स्कूल की ड्रेस में क्यों कही ले जाना होता था – अनजाने मुझसे गुनाह होते रहे और अपनी जरूरतों के आगे मैंने उनकी सोच की सीमा रेखा जानकर कभी नहीं लांघी उसी वक़्त नई पार्टी के अध्यक्ष अवस्थी जी की नज़र मुझ पर पड़ी – सबके लिए मैं भलेहि भीड़ का एक चेहरा था पर उन्हें मुझमें जाने कौन सी उम्मीद लगी और उस काली दुनिया से उठाकर उन्होंने मुझे राजनीति का एक चेहरा बना दिया – मैं भी आंख मूंदे बस उनके निर्देशों का पालन करता रहा लेकिन ये काली दुनिया जितनी आसानी से आपको अपनाती है उतनी आसानी से आपको त्यागती नही है – भलेही अपनी इस दुनिया से मैंने जय को हमेशा दूर रखा पर खुद को इससे नहीं बचा पाया – वे इस शहर के माने हुए चार काले पोश चेहरे थे – मैं शक्ल से उन्हें नही जानता था बस उनका कहा हर काम मैं करता था – वे आपस में फिर कब बंट कर अलग अलग हो गए मुझे नहीं पता – मैं तो बस उस गुनाह की दुनिया से बाहर आने को व्यग्र हो उठा – इसी बीच कई बार उन लोगों ने मुझे खत्म करने की कोशिश की – ऐसे ही अपनी किसी घायल अवस्था में मैं प्रेरणा से मिला जो हॉस्पिटल में नर्स थी – शायद वक़्त ने हमे जानकर एक दूसरे से मिलवाया – दो अनाथों को इस बेरहम दुनिया में एक दूसरे का सहारा मिल गया – जाने कब मेरे सूने मन ने किसी के लिए जीना शुरू कर दिया – उसने भी मुझे अपनाकर मेरा जीवन खुशियों से भर दिया – जय को जैसे अपनी माँ मिल गई और मुझे अपनी ख्वाबी दुनिया – जिससे बहुत आगे तक का मैं सोचने लग गया – सब कुछ ठीक चलने लगा – मैं राजनीति में पूरी ईमानदारी से अपना गुनाह त्याग कर सेवा में लग गया – प्रेरणा के साथ मेरी जिंदगी बहुत खुशहाल थी – जय से अब मुझे कुछ छुपाने की जरुरत भी नही थी क्योंकि उस काली दुनिया की परछाई से मैं धीरे धीरे दूर जाने लगा था पर वक़्त को कहाँ रहम आया मुझ पर और उस रात जब मुझे खत्म करने की कोशिश में मेरे घर में आग लगी तब मैं वहां नहीं था पर मेरी जिंदगी की सारी उम्मीदे आशाएं सब उस आग में जलकर ख़ाक हो गई – प्रेरणा को उसकी अधजली स्थिति में मैंने दुनिया से छुपा तो लिया पर बचा नहीं पाया और अपने अंश को जन्म देकर वो सदा के लिए जीवन भर के लिए तड़पता मुझे छोड़ गई – काश उस आग की गोद में मेरे लिए भी जगह होती |” कहते कहते अपने नम स्वर के साथ वे कुछ पल के लिए खामोश हो जाते है|

उस पल मानसी की वो स्थिति थी कि अपने स्थान पर खड़ी खड़ी वह कांप गई|

कुछ पल बाद एक गहरे श्वांस के साथ वे फिर से कहना शुरू करते है – “राजनीति में पद की भूख को कुछ लोगों ने फिर से मुझे अपना मोहरा बनाया और एक बार फिर से अपनों की जिंदगी को जलते हुए मुझे बेबस होकर देखना पड़ रहा है – पर इस बार मैं फिर वही नहीं होने दूंगा इसलिए मैं हमेशा के लिए अंश के साथ जय और तुम्हारी दुनिया से दूर कहीं चला जाऊंगा – क्योंकि बार बार खुद को सही साबित करने का हौसला नहीं है मेरे पास |”

“क्या आप जानते है कि किन लोगों ने किया ऐसा !!” मानसी बड़ी मुश्किल से कुछ पूछ पाई|

“मानसी राजनीति में कोई एक नाम नहीं होता – सिर्फ होती है सत्ता की भूख जिसके लिए लोग कभी कभी अपनों तक भी बलि चढ़ा देते है फ़िलहाल तो मैं बस एक मोहरा मात्र रहा – मैं तुम्हे आज सब सच बताऊंगा – |”

“वे फिर टहलते हुए कहने लगे – “इस बार भी हमारी पार्टी के जीतने के चांस ज्यादा है जिससे इसके अन्दर खलबली मचनी लाज़मी है – सभी को लगने लगा अगर अवस्थी जी का हाथ फिर मेरे सर पर रहा और मेरी अच्छी छवि को देखते हुए टिकट मुझे मिला तो सीएम का दावेदार होने से कोई मुझे नही रोक पाएगा – इसलिए मेरी ही पार्टी के कुछ लोगों ने मेरा अतीत खोजकर मुझे नीचे खींचने का पूरा प्रबंध करलिया और शैली जैसी पीत पत्रकार के सहारे तुम्हारे कंधे का प्रयोग किया – हाँ मैं था कल गुनाहगार पर आज का सच ये है कि उस दुनिया हो छोड़कर कब का मैं अपना रास्ता बदल चुका हूँ – आज सच में मैं समाज के लिए कुछ करना चाहता हूँ पर यहाँ काम नही मोह बोलता है और मेरे साथ साथ अनजाने ही अपने भाई की जिंदगी को भी मेरे काले अतीत ने अपने लपेटे में ले लिया |”

एकदम से मानसी की ओर देखते हुए वे कहने लगे – “मैं जय की नाराजगी भी हँसते हँसते बर्दाश्त कर सकता हूँ पर उसकी निगाह में खुद को गुनाहगार देख पाने का हौसला नहीं है मुझ में – नही है मुझ में – अब इस सच के अलावा कोई सच शेष नही मेरे पास – अब तुमपर है जो चाहे करो – अगर कल को वह मुझे जेल की सलाखों में डाल के भी सुकून महसूस करेगा तो उसके लिए भी मैं हँसते हँसते तैयार हूँ बस उसकी आँखों में बार बार खुद को गुनहगार की तरह देख पाना अब मेरे लिए असहनीय होता जा रहा है|”

वे एक लिफाफा उसकी ओर बढ़ाते हुए हाथ जोड़ते हुए कहते है – “ये मेरे द्वारा दिया राजनीति से त्याग पत्र है – इसे अख़बार में छाप कर तुम अपने विजय का उद्घोष कर सकती हो |” उसके हाथो में लिफाफा थमा कर वे वहां से चले जाते है|

उस पल मानसी उस लिफाफे को थामे किंकर्तव्यविमूढ़ अपने स्थान में खड़ी रह जाती है|

***

उस पल उसे क्या करना या क्या कहना चाहिए कुछ भी उसके चेतन मन में नही आया बन संज्ञा शून्य वह चुपचाप लिफाफा थामे घर वापस आ गई| पूरी रात टहलते टहलते वह खुद में ही मंथन करती रही| इसी मन की उथल पुथल में सुबह हो गई, आखिर वह कुछ मन में तय करती सुबह सुबह ही जय के घर आ गई| अलसुबह सामने मानसी को देख जय की निन्दासी ऑंखें एकदम से चौंक गई|

इरशाद भी उनके बीच शरीक होता उससे पूछ बैठा – “इतनी सुबह – क्या हो गया ?”

दोनों की अपनी ओर उठी प्रश्नात्मक आँखों का जवाब देने वह आराम से उनके सामने बैठती बीती शाम की अश्विन कुमार से हुई मुलाक़ात को जस का तस उनके सामने कह सुनाया| वे अवाक् सब सुनते रहे|

“अभी चलोगे मेरे साथ ?” मानसी जय की आँखों में देखती हुई प्रश्न करती है|

जय से कुछ कहते नही बनता बस हतप्रभ देखता रह जाता है|

“जय आज अगर नही गए तो कहीं देर न हो जाए |”

जय इरशाद की ओर देखता है जिसकी आँखों में पूर्ण सहमति थी मानसी से, वह झट से चलने को तैयार हो जाता है| वे साथ में बाहर की ओर निकलते है| जय झट से बुलेट स्टार्ट कर मानसी को मौन निमंत्रण देता है, मानसी भी अपनी स्कूटी वही छोड़कर बुलेट में उसके पीछे बैठ जाती है| हमेशा की तरह जो मानसी जय के पीछे बैठती हमेशा उसके कन्धों पर झूल जाती वह अपने हाथ खुद में समेटी थी, जय भी स्टार्ट कर बुलेट आगे नहीं बढ़ाता, मौन ही उनके बीच रूठना मनाना हो जाता है, जिससे मानसी अपने हाथ उसके कंधो पर ज्यों ही रखती है वह मुस्करा कर बुलेट आगे बढ़ा लेता है|

क्रमशः………

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