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हमनवां – 76

बुआ जी आश्रम की सारी तल्खी भुलाकर अब समर और ऋतु को लिए वापस अपने घर आ जाती है| सुबह से शादी का संस्कार संपन्न होते अब बाकी के रिवाज वे घर से करना तय करती है| शादी की ख़ुशी सबके चेहरों पर दमक रही थी| अब कोबर की रस्म अदायगी होनी थी इससे वे सभी एक सजे हुए आँगन में इकट्ठे हुए थे|

वहां कुछ पूजा पाठ कराकर अब अगले रिवाज की तैयारी थी जिसमे ऋतु और समर के आस पास सारे दोस्त गोल घेरा बनाकर बैठे थे और उनके बीच में एक बड़ा सा थाल रखा रखा था| बुआ जी रिवाज समझाकर दोस्तों के बीच उन्हें छोड़कर थोडा इधर उधर हो गई|

उस थाल में पानी भरा था जो गुलाब की पंखुड़ियों से अटा पड़ा था अब उसके बीच में एक सिक्का डालती हुई ऋतु और समर को वर्षा कहती है –

“आप दोनों इसमें हाथ डालकर जो पहले सिक्का उठा लेगा वो ही विनर होगा |”

ये सुनते जहाँ ऋतु समर एक दुसरे को चुपके से देखते मुस्करा रहे थे वही दोस्त समर को कोहनी मारते धीरे से उसके कानो में फुसफुसाते है –

‘जल्दी विनर बनना – आखिर तगड़ा इनाम जो तेरा इंतजार कर रहा है|’ ये सुनते समर अपनी हँसी रोकते उन्हें कोहनी से पीछे धकेल देता है|

समर को यूँ हँसते देख वर्षा जल्दी से कहती है – “चलिए शुरू करिए न |”

अब दुबारा एकदूसरे को देखते समर और ऋतु अपना अपना दाया हाथ उस थाल में डुबो देते है| उन्हें इस तरह सिक्का खोजते देख सारे दोस्त मस्ती में उन्हें प्रोत्साहित करने लगते है| वे सब वहां ऐसी प्रतिक्रिया देने लगे जैसे दो लोगो के बीच प्रतियोगिता हो रही हो| जहाँ लड़कियां ऋतु को बढ़ावा देने लगी वही जय, मोहित, इरशाद और पवन समर को बढ़ावा देने लगे|

“चल जल्दी कर समर – आज अपनी टीम की इज्जत की बात है – दिखा दे किसमे कितना दम है ?”

“हाँ हाँ क्यों नही – ये कुश्ती जो है – ऋतु तुम भी दिखा दो आज इन्हें इनकी असली जगह – ऋतु ऋतु..|” मानसी अब अगुवानी करती है जिससे पल में लडको और लडकियों के बीच आंख दिखानी शुरू हो जाती है|

जहाँ लड़के लड़कियां एक दूसरे को आंख दिखाने में लगे थे वही किसी का ध्यान इस बात पर नही गया कि ऋतु और समर बार बार एकदूसरे को देखते मुस्करा रहे थे| न समर उस थाल से सिक्का निकाल रहा था और न ऋतु ही| दोनों एकदूसरे को मौका दे रहे थे|

काफी देर तक जब दोनों में से किसी ने सिक्का नहीं निकाला तो बाकियों को माजरा समझ आया कि वे जिसपर हुटिंग कर रहे है वहां चुपचाप प्रेम का खेल चल रहा है| दोनों ही एक दुसरे को जिताने का मौका दे रहे थे|

ये देखते सभी हैरान होते उन्हें घूरने लगे पर बाकियों की प्रतिक्रिया को नजरअंदाज किए दोनों थाल में अभी भी हाथ डाले बैठे थे|

बहुत देर जब ये होता रहा तो जय से न रहा गया वो जल्दी से उस थाल से उन दोनों का हाथ बाहर खींच लेता है तब पता चलता है कि दोनों सिक्का खोजने के बजाये एकदूसरे का हाथ पकडे थे| ये देख जय थाल में से वो सिक्का निकालकर उसे देखता है वो दो रूपए का सिक्का था| जय उसे अब अपनी जेब के सुपुर्द करता अपनी जेब से दो सिक्के निकालकर एक समर की हथेली में रखता है दो दूसरा ऋतु की हथेली में रखते हुए कहता है –

“लो मेरे हंसो के जोड़ो – तुम दोनों ही विनर हो|”

सभी हैरानगी से जय की इस हरकत को देखते पहले तो चौंकते है फिर उनकी हथेली में एक एक रूपए का सिक्का देख ठहाका मार कर सभी हँस पड़ते है| जय ने कमाल का उनका इन्साफ किया था| दूर खड़ी बुआ जी भी ये दृश्य देखती अपनी हँसी रोक नहीं पाई|

वे इन रिवाजो की गहराई को भलीभांति समझती थी कि यही छोटे छोटे रिवाज आगे की पूरी जिंदगानी तय करते है| उन्होंने ऐसे समय सिक्के को हड़पने की छीनझपट भी देखी थी और दुल्हे द्वारा सिक्का लेने पर उसे दंभ भरते भी देखा था पर आज तो सबसे अनोखी बात थी जहाँ आपस में न कोई छीनझपट थी और न अहम का कोई स्थान| वहां सिर्फ और सिर्फ समर्पण का भाव था|

इस शादी में शामिल होने ऋतु के गुरूजी भी आए थे वे भी इस दृश्य को दूर से देखते समझ रहे थे क्यों ऋतु ने समर को अपना जीवनसाथी चुना था| आज वे अपना सारा मलाल भूल कर अपनी शिष्या के लिए आन्तरिक ख़ुशी का अनुभव कर रहे थे| अनुरुद्ध शादी में नहीं आया पर अपनी शुभकामना स्वरुप उपहार भेज चुका था|

अब कोबार के रिवाज पूरे करते शाम हो आई जिससे बुआ जी विदाई की तैयारी करने लगी| ये अजब विदा थी जहाँ रोने का कोई स्थान नहीं था| जय मुंह लटकाए खड़ी वर्षा को टोकते हुए कहता है –

“ऐसे मुंह क्यों लटकाए हो – तुम्हारी बहन सौ किलोमीटर क्या सौ मीटर भी दूर नहीं जा रही – बस कभी भी हाथ में डोंगा लिए आ जाना |” जय की बात पर जो हल्का सा नमी का माहौल बना भी था वो और भी हल्का फुल्का हो उठा|

सच ही तो जय कह रहा था| ये तो महज सीढियों तक की विदाई थी| वे दो घर वैसे भी एकदूसरे से सटे हुए थे कि एक अदद सीढ़ी ही उन्हें अलग करती थी|

आखिर शाम डूबने से पहले ऋतु उस घर में आ गई जहाँ अकसर ही वह आ जाया करती कभी कुछ ख़ास बनाकर तो कभी उन चिट्ठियों को देने जो डाकिए से वह इस हक़ से ले लेती कि वह खुद उन्हें उनके एड्रेस तक पहुंचा देगी| फिर इस बहाने ऋतु और समर की आमने सामने मुलाकात होती|

दोस्तों ने मिलकर समर का कमरा प्यार के अहसास से लबरेज कर दिया था| पर दोनों को ही उस कमरे में जाने से रोके वे मुख्य कमरे में महफ़िल सजाए बैठे थे| समर समझ गया कि आज खिचाई होने की उसकी बारी है|

जय मोहित से कहता है – “तो आज रात का सारा प्लान तैयार है न ?”

जय की बात पर बाकी उसे देखते है| तब मोहित भोला सा चेहरा बनाने हुए कहता है –

“हाँ हाँ – अब हमारी प्यारी भाभी आई है तो ग्रैंड स्वागत तो बनता ही है न |”

इरशाद जो समर के बगल में था उससे धीरे से फुसफुसाता हुआ कहता है – ‘मेरी शादी में बहुत तंग किया न – अब बच्चू तेरी बारी है –  इतनी आसानी से पहली रात नहीं मनने देंगे |’

समर थूक से गला तर करता समझ गया कि जैसे मोहित और इरशाद की शादी में तंग बाकियों ने तंग तो अब उसकी बारी है| वे दोस्त इतनी आसानी से उसे नही छोड़ने वाले ये सोचते वह मरमरी हालत में ऋतु की ओर देखता है जिसे घेरे बैठी शैफाली, मानसी और नूर बैठी थी|

बाकी के सभी लोग जा चुके थे| भावना जहाँ मोहित के परिवार को अपने साथ लिवा गई थी वही अंश को मानसी मानव के साथ भेज चुकी थी| समर के पिता हमेशा की तरह छत पर अपना ढेरा डाले आराम से सोए थे| एक तो वे उन दोस्तों को अपनी मस्ती करने का भरपुर मौका दे रहे थे तो दूसरी ओर उन्हें खुले स्थान में रहने की आदत सी थी| वे वहां भी कैम्प जैसा अरेंजमेंट किए आराम से थे|

सभी की मस्ती युही चल रही थी| धीरे धीरे रात घिरने लगी पर दोस्त थे कि आज समर और ऋतु को छोड़ने को तैयार ही नहीं थे|

तभी शैफाली हलकी उदासी से कुछ खाने की इच्छा व्यक्त करती है| उसका कुछ मीठा खाने का मन था| अब शैफाली की ऐसी हालत पर कोई उसकी बात से इंकार भी नहीं कर सका| अब इस समय कोई क्या बनाता मोहित जल्दी से उठकर उसके लिए मिठाई लाने चला गया|

जब वह मिठाई लाया तो उसे देख शैफाली मुंह बना उठी| उसे चमकती और आर्टिफिशल फ्लेवर देखकर उबकाई आने लगी ये देख ऋतु झट से उठती हुई कहती है –

“रुको मैं कुछ मीठा बना देती हूँ – वैसे भी मीठा बनाने का शगुन करना ही होता है |”

“अरे ऋतु आज ही तो शादी हुई है तुम्हारी |” मानसी उसे टोकती है|

“कोई बात नही – ये घर अजनबी थोड़े नही उसके लिए और फिर इसी बहाने हमे भी कुछ टेस्टी मिल जाएगा – वैसे भी ये लम्बी रात मस्ती से बैठकर काटनी है|” जय जानकर समर की ओर देखता हुआ अपनी बात कहता है जो तबसे उनका इस तरह अपने आस पास घेरा बनाकर बैठने से भुनभुनाया बैठा था| दोस्त किसी भी हालत में उसे अकेला छोड़ने को तैयार नही थे|

वाकई ऋतु के लिए ये घर कोई नया नही था| कहाँ क्या रखा था सब उसे पता था| वह किचेन में पहुंचकर हलुआ बनाने की तैयारी करने लगती है| वह इन दिनों बाकी सभी की पसंद के साथ शैफाली की पसंद भी जान चुकी थी|

कुछ देर में हलुआ बनाकर वह मानसी को शैफाली को हलुआ देने को कहती बाकी की कटोरी लिए बाकियों के पास चल देती है|

ऋतु के हाथ के खाने के सभी कायल थे और रात में गर्म गर्म हलुआ देखकर सबके मुंह में पानी आ गया| झट से सभी अपनी पानी कटोरी थामे अपने अपने स्थान पर बैठे खाने का लुफ्त लेने लगे| समर भी हाथ में कटोरी लिए था पर उसने खाया नहीं था|

कुछ देर में खाने के बाद जय अंगड़ाई लेता उठ जाता है और अपने कमरे में पहुँच जाता है जहाँ पहले से मोहित बैठा उसके बिस्तर पर सो गया था| जय भी उसके बगल में लेट जाता है| इधर इरशाद को भी नींद आने पर नूर उसे लिए अपने कमरे में आ गई| मानसी पल में औचक देखती रही| अब अपने हाथ में अपना हलुआ लिए उन्हें देखती है| उसे बात समझ नही आई कि देर तक जागने का प्रोग्राम बनाए बैठे दोस्त अचानक कैसे सो गए|

इस पर ऋतु और शैफाली साथ में हँस पड़े|

“क्योंकि तीन ख़ास कटोरी खास बदमाशो के लिए थी|”

शैफाली की बात पर मानसी अभी भी नासमझी से उन्हें देखने लगी| तब वह आगे कहती है –

“अब डॉक्टर साहब की पत्नी है – आसान थोड़े होगा इन्हें हाथो से बचना |”

शैफाली समझा देती है कि उन तीनो दोस्तों की शैतानी पर लगाम लगाने ऋतु ने नींद की बहुत हलकी डोज उनके हलुआ में मिला दी थी| अब मानसी सारा माजरा समझते कसकर हँस पड़ी|

अब जब बाकी के दोस्त गहरी नींद में जा चुके थे तो शैफाली मानसी का हाथ पकडती हुई कहने लगी –

“तो अब हमे भी कबाब में हड्डी नही बनना चाहिए – क्यों मानसी ?”

“हाँ भई – डाकटरनी साहिबा इससे पहले हमारा इंतजाम करे हमे निकल जाना चाहिए |” कहती हुई मानसी और शैफाली साथ में ठहाका मारती हँस पड़ी|

अब जो तीसरा कमरा खाली था वहां दोनों चली गई| मानसी जो रात में वापस जाने वाली थी अब जाने का विचार छोड़कर घर पर शैफाली के साथ रुकने  की बात कह देती है|

इधर सबको अचानक से गायब देख समर इधर उधर नज़र घुमाता है पर जब उसे कुछ समझ नही आता तो उठकर अपने कमरे की ओर चल देता है|

कमरे की देहरी पर खड़ा वह अंदर का नज़ारा देखता है जहाँ फूलो की सेज पर ऋतु घुंघट डाले बैठी थी| अब हैरानगी की जगह उसके चेहरे पर एक दिलकश मुस्कान थिरक उठती है| अब कौन कहाँ गया या क्या हुआ कुछ भी जानने के प्रति वह उत्सुक नहीं था|

वह मुस्कारते हुए अंदर आते कमरा बंद कर लेता है|

क्रमशः…..

अब हमनवां अपने अंतिम पडाव में है…..वैसे मैं आगे लिखने को इच्छुक नही थी क्योंकि लग रहा है कि एक बार कहानी खत्म करते उसे दुबारा शुरू करने से किसी को उसमे रूचि नहीं आती| पर अब चारो को उनके हमनवां से मिलाकर अंत कर ही दूंगी……..

4 thoughts on “हमनवां – 76

  1. Aisi baat to nhi hai.. mujhe to aapki har kahani achi lagti hai.. Haan bas thoda busy hone se der ho jaati hai padne me.. kyunki main to itminaan se padna pasand karti hu..
    Humnava ne dosti ke mayane khoob samjhaye hai .. aur main to in ki dosti ki fan hu…

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