
एक राज़ डेजा वू सीरीज 4 – 1
एक हॉस्पिटल में मानसिक रोगी बढ़ने लगते है और अचानक से वे गायब होते रहते है..आखिर कौन है इन सबके पीछे..??
एक राज़ डेजा वू सीरीज 4 – 1
शहर मुंबई स्थान अहिल्याबाई अनाथाश्रम| केवल कमरे में आते अपना सामान बांध रहा था| सब कुछ सामान्य था वहां| वह अनाथाश्रम में अपने बीस साल बिताने के बाद आज वहां से अलग अपना स्वतंत्र जीवन शुरू करने वाला था| अनाथालय के इंचार्ज सांगले भाऊ से वह अभी अभी इस बारे में बात करके आया था| वह भी इस बात से खुश थे कि केवल अब अपना आगे का जीवन स्वालंब होकर शुरू करने वाला है जबकि उनके अनाथालय के कुछ लड़के यही बर्तन मांजने और झाड़ू कटका करके मुफ्त का राशन तोड़ने में ही विश्वास रखते थे| इसी ग्रुप का मुखिया रज्जा केवल को पीछे से धक्का देता उसे छेड़ता हुआ कह रहा था –
“अबे अनाथी – कहाँ जा रहा है ?”
इस धक्के पर जल्दी ही खुद को सँभालते हुए केवल उसकी तरफ ध्यान न देता हुआ फिर से बैग की ओर झुका उसमे बाकि का सामान रखने लगता है|
“तू क्या समझता है कि इस अनाथालय से निकलकर तू अलग अपनी कोई पहचान बना लेगा – अबे तू किसी भी कोने में चला जा तू अनाथी का अनाथी ही रहेगा – समझा – मतबल तू अकेला है तो अकेला ही रहेगा इसलिए बाहर जाने के बजाये रज्जा दादा की शरण में रह तो तेरा कुछ भला भी हो जाएगा |” वह लगातार बोलता रहा पर केवल यूँ अपने काम में व्यस्त रहा जैसे उसकी बात उसने सुनी ही नही|
“अबे तू सुन रहा है मेरी बात !! तू जरा सा पढ़कर अपने को साहब समझने लगा है क्या – तेरी औकात क्या है – कौन सी तुझे बड़े साहब वाली नौकरी मिली है – डिलवरी बॉय की नौकरी पर ही तेरी इतनी ऐथ – !” रज्जा बुरी तरह से चिढ़ता हुआ पीछे से ही उसका कॉलर पकड़ते उसे अपनी ओर खींच ही रहा था कि एक तेज कर्कश आवाज उसे वही जमा देती है| अब वे दोनों एकसाथ आवाज की दिशा में देखते है जहाँ इंचार्ज सांगले भाऊ उसे घूरती आँखों से देख रहे थे इससे रज्जा उसका कॉलर छोड़ता जबरन हँसता हुआ कहता है –
“भाऊ इसे समझा रहा था – अकेला कहाँ जाएगा – बाहर साला सारी दुनिया …..है |” वह गन्दी सी गाली देता गले से थूक खंगालने लगता है|
“हाँ तो तेरी तरह जिंदगी भर कुम्भ का बेडूक बना रहे !” भाऊ और भी कुछ कहना चाहता था पर केवल को सामान पैक करके जाने को व्यग्र देख अब वे उसकी ओर ध्यान देते हुए कहते है – “रे केवल – तेरा तेयारी हो गया – चल अपन बाहर तक छोड़कर आते है|” कहते हुए वे केवल की ओर अपना हाथ बढाकर उसके मना करने पर भी उसका अन्यत्र बैग उठा लेते है| बाहर निकलते वे अपनी घूरती आँखों से रज्जा को वही रोकते अब साथ में बाहर निकल गए थे|
वे बाहर निकलते निकलते केवल को समझाते हुए कहने लगे – “तेरो को ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं – तू जो कर रहा है वो एकदम सही है – तू बिंदास बाहर रह – अपन है न तेरे वास्ते यहाँ – जब भी कोई झोल हो – तुरंत आने का – मन लगाकर अपना काम करना ओर हाँ |” चलते चलते रुकते हुए उसकी ओर ध्यान से देखते हुए कहते है – “ओर न ये कभिच्य मत सोचना कि तेरा कोई नही – वो है न – सबका मालिक एक है |” कहता हुआ अपनी तर्जनी से ऊपर आसमान की ओर इशारा करते हुए कहते मन ही मन मुस्करा लेते है जिससे उस पल उनकी मुस्कान से केवल के हाव भाव भी खिल उठते है|
केवल ने इस कम उम्र में भी जिंदगी के प्रति काफी गहरा अनुभव हासिल कर लिया था इसी कारण वह अपना जीवन स्वालंब होकर गुजारना चाहता था| हालाँकि अभी घर की वह कोई व्यवस्था नही कर पाया था इसलिए अपना सारा सामान रेलवे के क्लॉक रूम में जमा करके अपने काम के लिए निकल गया था| क्योंकि स्टोर वाले ने उसका काम देखकर उसे एक कमरा देने का वादा किया था| उसे उम्मीद थी कि एक दो दिन उसका काम देखकर स्टोर वाला उससे जरुर खुश हो जाएगा| अपना सामान जमा करके वह अपनी पहली डिलवरी के लिए नवी मुंबई में एक पता ढूंढता हुआ आया था| वह कुछ देर एक पता ढूंढता रहा पर जब उसे अपार्टमेंट की कतार के बीच वह पता नही मिला तो वही सड़क किनारे बनी झोपड़ी के पास खेलते कुछ बच्चों के पास आता हुआ उनसे पता पूछता है जिसपर उनमे से एक बड़ा लड़का उसे घूरता हुआ देखता रहा|
“बताना ये चार सौ पैसठ तो है पर तुकाराम शाहडे का घर किधर है ?” केवल उसके चेहरे को ध्यान से देखता हुआ फिर पूछता है|
तब वह लड़का कुछ न कहता बस उंगली के इशारे से दिशा का इशारा करता है जिसपर केवल उधर ध्यान से देखता हँसता हुआ कह उठा – “अरे सही बताया – यही नाम तो है – |”
उसकी नजरो के सामने अपार्टमेंट की कतार के कोने में वह एक घर था जिसकी ओर वह बढ़ गया था लेकिन वह ये नहीं देख पाया कि उसे पता बताने वाला लड़का अभी भी उसकी ओर देखा रहा था|
“जट्टू – मई अभी आती हूँ तू तब तक मोलगी का ध्यान रखना और कही मत जाना – अरे इधर देख न – उधर किधर देख रहा है – |” तभी उस झोपड़ीनुमा घर से निकलती एक औरत उस लड़के और उसके पास खेलती लड़की की ओर देखती हुई कहती है लेकिन लड़के का ध्यान अभी भी वही लगा था जिधर केवल गया था | वह औरत हाथ का झोला संभालती हुई कुछ ज्यादा ही जल्दी में थी इसलिए उस लड़के को सब बताती आगे बढ़ती बढ़ती बडबडाती रही –
“ध्यान रखना मोलगी का और इधर उधर नही जाना – पता नही क्या दिख रहा है उस बंद पड़े घर में – वो घर भी इस इलाके का भूतिया घर है – जाने कब से ऐसे ही बंद पड़ा है पर मेरे को क्या – जल्दी से पहुंचू नही तो देर से पहुँचने पर मेमसाहब मेरा क़त्ल ही कर डालेगी |” अपने में मुस्कराती वह अपने कदम और तेज कर लेती है|
वह लड़का तब से यूँही खड़ा रहा जैसे उसे पता पूछने वाले लड़के के लौटने का इंतजार था लेकिन घंटा भर बीत जाने के बाद भी वह लौटकर नही आया| धीरे धीरे शाम का धुंधलका चारों ओर फैलने लगा बस वही एक घर अँधेरे के गर्त में समाया रहा जहाँ केवल अपनी पहली और अंतिम डिलवरी करने गया था|
क्रमशः……
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