भूमिका
मानवीय संवेदना की कहानियां
रूपसिंह चन्देल
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हिन्दी साहित्य में अनेक ऎसे साहित्यकार हैं जो भीड़ से बचकर चलते हुए अपने साहित्यकर्म में लीन रहते हैं. पता नहीं ऎसा वे भारतीय परम्परा के निर्वहन के भाव से करते हैं या स्वभावगत कारणों से. संस्कृत ही नहीं मध्यपूर्व और मध्यकाल के अनेक साहित्यकार ऎसे रहे जिनके विषय में हम बहुत कम जानते हैं. उनकी रचनाओं की पहचान भी हम उनके शिल्पगत विशेषताओं के आधार पर ही करते हैं. कानपुर के कथाकार स्व. प्रतापनारायण श्रीवास्तव, जो भगवतीचरण वर्मा के सहपाठी थे, पर जब मैंने शोध का निर्णय किया तब उनके जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि की खोज करते हुए मुझे दर-दर भटकना पड़ा था. श्रीवास्तव जी ने एक छोटे परिचयात्मक आलेख के अतिरिक्त अपने विषय में कहीं कुछ नहीं लिखा था. बीस उपन्यासों का लेखक वह साहित्यकार सदैव भीड़ से दूर रहता हुआ आजीवन सृजनकर्म लीन रहा. शायद यही कारण रहा कि ’बेकसी का मज़ार’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखने के बावजूद उन्हें उनका प्राप्य नहीं मिला. युवा कथाकार अर्चना ठाकुर की कथाभूमि और जन्मभूमि भी कानपुर है और वह भी भीड़ से बचती हुई निरंतर लिख रही हैं.
अर्चना ठाकुर जिस पीढ़ी की हैं वहां यह गुण आश्चर्य पैदा करता है. लेकिन इस सबके बावजूद वह अपना पहला कहानी संग्रह पाठकों के हाथ सौंपने जा रही हैं. सम-सामयिक विषयों पर उनकी पकड़ मजबूत है और वह अपने आस-पास से अपने कथानकों का चयन करती दिखाई देती हैं. कभी वह फंतासी (लेखक की आत्मा) का सहारा लेती हैं तो कभी सीधी-सपाठ शैली का. भाषा पर उनका अधिकार है और वह वातावरण और पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग करने में दक्ष हैं.
’लेखक की आत्मा’ कहानी में वह धर्मगुरुओं के प्रति समाज में व्याप्त अंधविश्वास पर सीधे रूप से कुठाराघात करती हैं. राजा और जनता द्वारा पूज्य धर्मगुरू के कृत्यों पर लेखक प्रश्नचिन्ह लगाता है. “’ऐसा नहीं कि राज्य में पुरुष सेवकों की कोई कमी हो ,फिर क्या कारण है कि यहाँ सिर्फ सेविकाएँ ही सेविकाएँ है ,एक भी पुरुष सेवक नहीं – ऐसा क्यों?’ यह कहानी लेखक समाज को यह संदेश देती प्रतीत होती है कि ऎसे धूर्तों के विरुद्ध लेखक समाज को आवाज उठाना चाहिए.
प्रकृति लेखिका को आकर्षित करती है. अनेक कहानियों में वह प्रकृति का आकर्षक चित्रण करते हुए मौलिक प्रतीकों का सहारा लेती हैं. ’किरदार’ कहानी में वह कहती है, “ कभी बारिश की धूपकी चाह में छत से मेरी नजरें उस बस्ती को गूगल की तरह सर्च करती जाती.”
’किरदार’ नारी विमर्श को बिल्कुल ही भिन्न रूप में प्रस्तुत करती है, बल्कि यदि कहा जाए कि यह पुरुष विमर्श की एक सार्थक कहानी है तो अत्युक्ति न होगी, जहां मानसिक रूप से अस्वस्थ मंजु के लिए प्रतिभाशाली लेकिन गरीब अनिरुद्ध को खरीद लिया जाता है. शादी होती है. मंजु के इलाज के लिए दोनों को अमेरिका भेजा जाता है. मंजु तो स्वस्थ होकर लौट आती है, लेकिन अनिरुद्ध का क्या होता है यह समझना कठिन नहीं. एक पूजीपति की बेटी के साथ विवाह के षडयंत्र का वह शिकार हो जाता है. कहानी वर्गीय जीवन को बहुत सहजता से हमारे समक्ष प्रस्तुत करने में सफल रही है.
अर्चना ठाकुर की कहानियां जहां सामाजिक विद्रूपता, अंधविश्वास, विश्रृखंलता, घात-विश्वासघात (स्वाहा) आदि को गंभीरता से अभिव्यक्त करती हैं वहीं अनेक कहानियों में मानवीय संवेदना की सूक्ष्म अभिव्यक्ति परिलक्षित है. उदाहरणार्थ ’अनकही’ और ’रोशनी’ कहानियां को लिया जा सकता है. ’अनकही” में जहां हृदय प्रत्यारोपण को केन्द्र में रखकर कहानी बुनी गयी है वहीं ’रोशनी’ में आंख प्रत्यारोपण की बात है. दोनों कहानियों का केन्द्रीय विषय एक होते हुए भी मूल कथानक भिन्न है. ’स्वाहा’ नारी के प्रतिशोध की एक ऎसी कहानी है, जो यह संदेश देने में सफल है कि समाज के भेड़ियों को आज शीतल जैसी समझदार और सशक्त युवतियों की आवश्यकता है. “ उसका मन कह उठता है कि इस होम के साथ अब उसने अपने जीवन की वो काली रात , वो दर्द ,वो विश्वासघात , वेदना सब स्वाहा कर अपने मन को कलुषित विहीन कर लिया था .”
उपरोक्त विश्लेषित कहानियों के अतिरिक्त ’मंथन’, ’पीड़ा’, ’धुलेंडी’ और ’सयाना कौआ—बैठता है’ कहानियां भी अमिट प्रभाव छोड़ती हैं.
एक कथाकार के रूप में अर्चना ठाकुर का कथाकार निरन्तर उन्नति पथ पर अग्रसर रहे इस कामना के साथ.
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रूपसिंह चन्देल
८ सितम्बर ,२०१४
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कहानी संग्रह – लेखक की आत्मा
लेखिका – अर्चना ठाकुर
प्रकाशन – अंजुमन प्रकाशन
पृष्ठ – 112
कीमत – 120 / –
( साहित्य सुलभ श्रृंखला के अंतर्गत 20 / )
यथार्थवादी, आदर्शवादी और मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों को समेटे हुए है ‘ अर्चना ठाकुर ‘ का पहला कहानी-संग्रह ” लेखक की आत्मा “, हालांकि कहीं-कहीं यथार्थवाद और आदर्शवाद अति की सीमाओं को भी छूता प्रतीत होता है । इस संग्रह की बारह कहानियों में एक तरफ सात्विक प्रेम है, तो दूसरी तरफ बदले की कहानी है । लेखक के दुःख का ब्यान भी हुआ है और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी बड़ी बखूबी उठाया गया है ।
कलमघिसवा कहकर वे लेखक की दशा का ब्यान करती हैं कहानी ‘ लेखक की आत्मा ‘ में । यह लगभग हर लेखक के शुरूआती दौर की कथा है, जब वह खूब लिख रहा होता है, मगर छप नहीं पाता, लेकिन लेखिका ने कहानी को स्वप्न में ले जाकर एक नया मोड़ दिया है, जिससे यह सिर्फ लेखक की कहानी न रहकर तथाकथित धर्मगुरुओं के पाखंड और दोगले चरित्र को उद्घाटित करती है, साथ ही स्त्री को भोग्य वस्तु समझे जाने की ओर भी इंगित करती है ।
” धर्म के नाम पर स्त्री का व्यापार । स्त्रियाँ कोई साग सब्जी नहीं जिनकी खरीद-फरोख्त की जाए । “( पृ. – 15 )
‘ किरदार ‘ कहानी का पात्र अनिरुद्ध सागर भी लेखक है और उसकी भावुकता को छला जाता है । इसी प्रकार का छल इस संग्रह की अंतिम कहानी ‘ तुम्हारे लिए ‘ में नम्रता से किया जाता है । ‘ किरदार ‘ और ‘ तुम्हारे लिए ‘ दोनों कहानियों में वो कड़वा सच है , जिसके कारण भावुक लोग स्वार्थी मनुष्यों के हाथों लुटते हैं ।
‘ बंद कमरे में धुआं ‘ कहानी मनोविज्ञान के विषय को लेकर बुनी गई है । इस कहानी का आधार ओ.सी.डी. ओब्सेसिक कम्पलिस्व डिसऑर्डर बीमारी है । लेखिका का खुद मनोविज्ञान में एम.फिल. होना इस विषय को निभाने में मदद करता है । इसी कारण उनकी कई अन्य कहानियों में भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण देखने को मिलता है । ‘धुलेंडी ‘ इस दृष्टिकोण से प्रमुख कहानी है । प्रोफेसर की पत्नी इस कहानी का केंद्र बिंदु है, हालांकि इस कहानी की शुरुआत शालिनी की कहानी के रूप में होती है । शालिनी की कहानी को अगर थोड़ा कम विस्तार दिया जाता तो यह ज्यादा प्रभावी हो सकती थी । कहानी का अंत तो लघुकथा जैसी मारक क्षमता रखता है, और यह कहानी प्रोफेसर की पत्नी की कहानी बन जाती है, जिससे शालिनी की कहानी अलग-थलग प्रतीत होती है । ‘ औरत हो क्या ‘ कहानी भी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है । इसमें लेखिका ने बड़े महत्त्वपूर्ण विषय को उठाया है । पुरुषों में स्त्रैण गुणों पाए जाते हैं और ऐसे पुरुष समाज में हंसी के पात्र बनते हैं । सुबोध भी इसी प्रकार का पात्र है । उसका भाई और बहू की सखियाँ उस पर हँसते हैं । सुबोध अंत में दुखी होकर कहता है –
” ये प्रश्न जीवन पर्यन्त मेरे साथ चला, पर कभी मैंने इसका जवाब नहीं तलाशा । ज़रूरी भी नहीं लगा और न ही अफ़सोस हुआ क्योंकि समझता था स्त्री मन को, उसकी आंतरिक चाह को । पर लगता है आज सोचना पड़ेगा बेटा जी, अगर औरत तुम जैसी हो तो । ” ( पृ. – 95 )
सुबोध की कहानी कहने के साथ-साथ अगर उसके मन की उठा-पटक का वर्णन और होता तो यह कमाल की कहानी हो सकती थी, हालांकि बुरी यह अब भी नहीं । ‘ चिट्ठी में !’ कहानी भी मनोवैज्ञानिक कहानी है, इस कहानी में लेखिका ने किशोर लड़की के मन में अंकुरित अहसास को पूरी उम्र निभाने का ब्यान किया है ।
इस संग्रह की कहानियों में आदर्शवाद की झलक भी है । ‘ अनकही ‘ इसी प्रकार की कहानी है, जो सात्विक प्रेम की बात करती है, हालांकि यह प्रेम एकतरफा है । कविता तो इस किस्से से भ्रमित ही है –
” वो प्रेम था या सिर्फ अहसास, वो शब्द था या पूरी कहानी, नहीं कह सकती पर वो मेरी याद का ऐसा हिस्सा ज़रूर था जो मुझे एक साथ बहार और पतझड़ की याद दिलाता है ।” ( पृ. – 25 )
यह आदर्श ‘ रौशनी ‘ कहानी में भी है लेकिन कुछ अति लिए हुए । प्रायश्चित के ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं, साथ ही रौशनी के साथ उसका मेल-जोल और रौशनी का खत पढ़ना जैसी कुछ बातें सहजता से गले नहीं उतरती । ‘ मंथन ‘ और ‘ स्वाहा ‘ कहानियाँ भी अति के दोष से ग्रस्त हैं । ‘ मंथन ‘ का पात्र शिबू गूंगा तो है बहरा नहीं, सामन्यत: बच्चे गूंगे और बहरे ही होते हैं । अगर इसे भी स्वीकार कर लिया जाए तो अंत में शीबू का खत लिखना और उसकी आत्मग्लानि अस्वाभाविक लगती है, हालांकि इससे पूर्व का वर्णन बड़ा स्वाभाविक है । ‘ स्वाहा ‘ कहानी बदले पर आधारित है । शीतल के मोहभंग को भावुक लड़की का फैसला माना जा सकता है, लेकिन भरी बस में राजेश की मृत्यु इन्हेलर न होने से हो जाना अति है ।
‘ स्याना कौआ… बैठता है ‘ एक कहावत को चरितार्थ करती कहानी है । इसमें जीवन के विरोधाभासों का सटीक वर्णन है । मामा जी जैसे पात्र आम हैं और ऐसे चालाक पुरुषों का ठगी का शिकार होना भी आम है ।
लेखिका ने कथानक को विस्तार देने के लिए अनेक विधियों का सहारा लिया है । ‘ लेखक की आत्मा ‘ कहानी स्वप्न के सहारे कही गई है, ‘ अनकही ‘, ‘ चिठ्ठी में ‘, और ‘ मंथन ‘ कहानियों में फ़्लैश बाइक तकनीक का प्रयोग किया गया है, लेकिन ‘ मंथन ‘ कहानी में एक चूक हुई है | कहानी की शुरुआत शीबू से हुई है –
” शीबू के सामने तमंचा रखा था, तमंचे पर उसकी नजर गड़ चुकी थी । ” ( पृ. – 63 )
कहानी का अंत किशन से होता है और पूरी कहानी के अनुसार शुरुआत किशन से होनी चाहिए थी, शुरूआती जो दशा शिबू की है, वह दरअसल किशन की ही होनी चाहिए । संभवतः शुरुआत में किशन को शिबू लिखा गया हो । ‘ किरदार ‘ को समय के अंतराल द्वारा पूरा किया गया है । लेखिका कहानियां कहने में विश्वास रखती है, इसलिए वर्णात्मक शैली की प्रधानता है, लेकिन मैं पात्र की मौजूदगी से आत्मकथात्मक शैली का भी समावेश हुआ है । जरूरत के अनुसार संवाद भी हैं । संवाद छोटे हैं, जो कथानक को गति देते हैं । कहानियों में कई पात्रों को कोई नाम नहीं दिया गया है, जैसे कविता का प्रेमी, रौशनी कहानी का पुरुष पात्र, प्रोफेसर की पत्नी ।
चरित्र चित्रण की दृष्टि से यह कहानी-संग्रह सफल कहा जा सकता है । प्रोफेसर की अनपढ़ पत्नी की दशा कैसी हो सकती है, उसका सटीक चित्रण है ‘ धुलेंडी ‘ कहानी में । अल्पना, शिबू, सुबोध, नम्रता आदि कुछ महत्त्वपूर्ण पात्र हैं । पात्रों का चरित्र कई विधियों से उद्घाटित किया गया है । लेखक खुद संकल्प लेता है –
” मुझे लिखना है, मुझे लिखना है क्योंकि मैं सिर्फ प्रकाशित होने के लिए नहीं लिखता, मैं लिखता हूँ अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए इसलिए मैं लिखूंगा । ” ( पृ. – 15 )
मामा जी को लेखिका खुद परिचित करवाती हैं –
” मामा जी की नुक्ताचीनी की आदत, और बाल की भी खाल खोज लाने की काबिलियत ही उनका गुण था ।”( पृ. – 28 )
प्रोफेसर की पत्नी का चित्रण प्रोफेसर के इस कथन से होता है –
” अब आप जैसी पढ़ी लिखी तो है नहीं, तो क्या जाने मिलना जुलना । चलिए आपने कहा तो मिलवाने ले आया ।”( पृ. – 80 )
अल्पना की जीवन शैली बहुत कुछ कह देती है –
” दिन में कितनी बार नहाती थी वो, अक्सर घर धोती रहती थी । कभी पर्दे, कभी बिस्तर का सिरहाना, पैताना, दिन भर कपड़े धोती, डोरी से भीगे कपड़े जैसे हटते ही नहीं थे । ” ( पृ. – 59 )
भाषा के दृष्टिकोण से यह कहानी-संग्रह काफी सफल कहा जा सकता है । लेखिका ने अनेक उक्तियों से इसे रोचक बनाया है, जैसे –
” निराशा की मित्रता नाउम्मीदी से होती है । “( पृ. – 11 )
” जिस मुकदमे का फैसला तय हो उसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं होती । “( पृ. – 30 )
“खबरें हल्की होती हैं, हवा संग बहती चली गई और हवा को रोक पाना नामुमकिन होता है । ” ( पृ. – 33 )
“एक अपरिचित किताब जिसे छाप कर उसका प्रकाशक ही उसे बिसरा बैठा हो |”( पृ. – 77 )
सटीक उक्तियों के सिवा दृश्यों के चित्रण, घटनाओं के सजीव चित्रण में भी लेखिका सफल रही है |
” तेज रफ्तार सड़क में जैसे सभी कुछ तेजी से भाग रहा था | सड़क किनारे शांत खड़े खंभे भी गाड़ियों संग भागते नजर आ रहे थे | ” ( पृ. – 34 )
प्रतीकात्मकता का भी समावेश है –
” मैच खतरनाक मोड़ पर था, आख़िरी गेंद और आख़िरी विकेट था | गेंद बाउंड्री पार भी जा सकती थी या कैच भी की जा सकती थी | ” ( पृ. – 31 )
‘ सयाना कौआ…बैठता है ‘ कहानी का शीर्षक बताता है कि लेखिका भाषा के दूषित प्रयोग की हिमायती नहीं, इसीलिए कहावत को अधूरा कहा गया है, अन्यथा आज के दौर में कुछ लेखक गालियों का प्रयोग भी आम करते हैं | प्रूफ में कुछ गलतियाँ है, लेकिन समग्रत: देखें तो ” लेखक की आत्मा ” एक सफल कहानी-संग्रह है, जो उम्मीद जगाता है कि अर्चना ठाकुर की कलम से भविष्य में बेहतर कहानियाँ पढने को मिल सकती हैं |
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दिलबागसिंह विर्क
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वरिष्ठ लेखक सुभाष चंदर जी दवारा “लेखक की आत्मा ” किताब पर एक समृद्ध पाठक के रूप में विचार..…
अर्चना ठाकुर का पहला कहानी संग्रह “लेखक की आत्मा ” ने मुझे चौंका दिया ! कारण कि मैं उसमें नए लेखक की प्रस्तुति ,कथ्य के निर्वाह ,शिल्प वगैरह की कमियों की आशा कर रहा था ,पर मुझे निराश होना पडा क्योंकि यह संग्रह किसी भी स्तर पर नया नही लगता ! संग्रह भाषा के स्तर पर प्रौढ़ और कथ्य के निर्वाह में इतना सधा हुआ है मुँह से कई बार तो अश अश निकल उठता है ! चूँकि लेखिका मनोविज्ञान में निष्णात हैं सो मानव मन की जटिल पड़ते खोलने का आग्रह उनकी लगभग हर कहानी में है और कहीं कहीं ही खलता है 1 संग्रह की अधिकांश कहानिया प्रभावित करती हैं जिनमें धुलेंडी ,,तुम्हारे लिए ,बंद कमरे का धुआं,औरत हो क्या ,किरदार विशेष रुप से प्रभावित करती हैं ! धुलेंडी अद्भुत कहानी है ( शीर्षक जितना खराब है ,कहानी उतनी ही अच्छी है ) मनोवैज्ञानिक स्तर पर जटिलताओं की पड़ते उधेड़ देने वाली कहानी है ,प्रोफेसर की अनपढ़ बीवी के अन्दर पनपता आक्रोश और उसका विस्फोट समय कहानी को एक ऐसा अंत देते हैं कि सिद्धहस्त कहानीकार भी चौंकने पर विवश हो जाएँ ! बंद कमरे का धुआं ,औरत हो क्या नए सिरे से कहानी को रचने के ढंग से परिचित कराती हैं !” तुम्हारे लिए” संवेदना की धीमी धीमी आँच पर सिकती कहानी का आभास देती है ! ऐसा नही है कि सब गुडी गुडी ही है ,एक दो रचनाये निराश भी करती हैं जिनमें सयाना कौआ बैठता है का उल्लेख किया जां सकता है जहाँ कथाकार कौतुहल को शुरू में ही खत्म कर देता है ,अइसी ही रचना लेखक की आत्मा है जहाँ उसकी प्रतीकात्मक्ता और शिल्प मोह ने उसे एक बडी कहानी बनने से रोक लिया !
खैर इन एक दो कमियों को छोड़कर पूरा संग्रह प्रभावित करता है और यह कहने पर मजबूर करता है कि अर्चना ठाकुर कहानी की दुनिया में बहुत लम्बा सफर तय करेंगी और अपना एक ख़ास मुकाम बनायेंगी …………..सुभाष चंदर
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ऐसी पाठकीय टिप्पणी का सपना हर लेखक देखता है ….
पढ़ें कहानी संग्रह “लेखक की आत्मा” पर कल्पना रामानी की विस्तृत पाठकीय टिप्पणी …
बधाई लेखिका अर्चना ठाकुर को
नमस्कार मित्रों
आज मैं एक ऐसी कथाकार के कहानी संग्रह से आपको परिचित करवाना चाहती हूँ जो मेरी वेब पर आगमन के समय की (लगभग ४ साल पहले)मित्र हैं। मैं छंद विधा में लिखा करती थी और वो छंदमुक्त कविताएँ लिखने में सिद्धहस्त थीं। उनकी लघुकथाएँ और कहानियाँ मैं अक्सर पढ़ा करती थी और पसंद भी करती थी। आज उनका पहला कहानी संग्रह, जो उन्होंने उपहार स्वरूप मुझे भेजा, देखकर आश्चर्य मिश्रित सुखद अनुभूति हुई कि वेब से दूरी बनाकर उन्होंने कठिन तपस्या शुरू कर दी है और इसी का परिणाम किताब के रूप में मेरे सामने है। किताब अंजुमन प्रकाशन से प्रकाशित हुई है और १२० पृष्ठों की पेपर बैक किताब का मूल्य सिर्फ १२० रुपए है। किताब की पहली कहानी जो किताब का शीर्षक भी है “लेखक की आत्मा” पढ़ना शुरू करते ही मैं इतनी प्रभावित हो गई कि पूरी किए बिना अपने स्थान से हिली भी नहीं, कहानी के ये शब्द “मुझे लिखना है, केवल लिखना है क्योंकि मैं सिर्फ प्रकाशित होने के लिए नहीं लिखता, मैं लिखता हूँ अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए”
मेरे मन में बार बार प्रतिध्वनित होते रहे फिर तो उत्सुकता वश एक और करते करते तीन कहानियाँ एक साथ पढ़ डालीं। भाषा, शिल्प, कहने की शैली इतनी उम्दा कि मन पढ़ते पढ़ते डूब ही जाए। हर कहानी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई है, एक संदेश और चेतावनी देती हुई है। पढ़ते पढ़ते पाठक भी उसके पात्रों का हिस्सा बन जाते हैं और कुछ कर गुजरने की भावना मन में हिलोरें लेने लगती है। संवेदनाएँ और सामाजिक सरोकार ही हर कहानी का कथानक बुनते हैं। हमारे समाज में जो होता आया है उन विषयों को सुंदर कहानी का रूप देकर प्रस्तुत करना एक कलाकार के श्रम को ही सिद्ध करता है, और अर्चना जी ने बहुत कम समय में यह उपलब्धि हासिल कर ली है, लगता ही नहीं कि यह उनका पहला कहानी संग्रह है। हर कहानी पाठक के मन पर अपना प्रभाव छोडती है। जिस तरह तिनका-तिनका एकत्र कर पक्षी नीड़ बुनता है, इसी तरह अर्चना जी ने शब्द-शब्द के तिनके इकट्ठे कर जो नीड़ बुना है और उसमें भावनाओं को संरक्षित किया है, उसे देखकर मन से बस यही शब्द निकलते हैं -वाह अर्चना!
उदाहरण स्वरूप मैं आपके समक्ष कुछ कहानियों के वाक्य जो मन को गहराई तक छू गए, प्रस्तुत कर रही हूँ।
‘किरदार’
यह कहानी एक ऐसे शख्स की है जो मजबूरी में पारिवारिक जवाबदरियों के निर्वाह के लिए एक पागल लड़की से शादी कर लेता है। गौरतलब है-
“क्या जरूरतों का कद आदर्शवाद से इतना ऊँचा हो गया कि पैसों के लिए उसने अपनी उम्र से बड़ी एक पागल लड़की से शादी कर ली”?
‘अनकही’
यह कहानी हृदय प्रत्यारोपण विषय पर रची गई है। घटनाओं का ताना-बाना बड़ी खूबसूरती से बुना गया है। भाषा-शैली और कहन का सौन्दर्य देखिये-
डॉक्टर अपनी बात कहकर चले गए और कविता खड़ी उन्हें जाते हुए देखती रही। “डॉक्टर ने ऐसा क्यों कहा, ऐसा तो डॉक्टर तभी कहते हैं जब मेडिकल साइंस को अपनी सीमा रेखा का अहसास हो जाता है, जब उनके हाथ में कुछ नहीं रह जाता तो वे भी भाग्य की स्थिति को स्वीकारने लगते हैं”।
“सयाना कौवा बैठता है”
कहानी के नायक को लोग अपने लड़कों का रिश्ता तय होने पर लड़की के गुण-दोष जाँचने के लिए आमंत्रित करते हैं। वो इस काम में इतना सिद्ध हस्त है कि क्या मज़ाल जो लड़की का एक भी दोष उसे चकमा दे सके। समय पर उसके अपने बेटे की शादी के अवसर पर उसके साथ ऐसा वाकया होता है कि उसे अपनी ही नज़रों से छिपने को जगह नहीं मिलती। पूरी कहानी बहुत रोचक है उसका अंतिम अंश देखिये-
“हवा को रोक पाना नामुमकिन होता है, मामाजी (नायक) जानते थे, अब वे घुटनों में मुँह डाले अपने बचाव के लिए कोई कहावत सोच-सोच कर रोए जा रहे थे”।
धुलेंडी
इस कहानी में नायिका शालिनी के माध्यम से एक ग्रामीण महिला की व्यथा का चित्रण इस खूबी से किया गया है कि अंत तक साँस रोके पढ़ती गई। ग्रामीण महिला का पति पत्नी से सारी सेवाएँ तो वसूल करता है लेकिन अपने साथ कहीं लेकर नहीं जाता, और औरों के सामने अपमानित करने से भी नहीं चूकता। कहानी वक्र गति से चलती हुई ऐसे मोड पर खत्म होती है कि मैं चमत्कृत हुए बिना न रह सकी।
तुम्हारे लिए
मनोविज्ञान को केंद्र में रखकर बुनी हुई यह कहानी बहुत प्रभावी बन पड़ी है। यह पुस्तक की अंतिम कहानी है, नायिका परिस्थितियों को अपने अनुकूल देखकर बड़े उत्साह से मनोविज्ञान विषय लेकर शोध तक पहुँचती है लेकिन परिस्थितियाँ उसे अपने जाल में इस तरह जकड़ लेती हैं, कि वो छटपटाकर रह जाती है और कहानी पाठक के सामने प्रश्न चिह्न बनकर खड़ी हो जाती है।
अर्चना जी ने उतार चढ़ावों को इतनी खूबसूरती से चित्रित किया है कि कहानी अंत तक रोचक बनी रहती है।
औरत हो क्या!
यह विषय तो जाना पहचाना है लेकिन कलम का कमाल देखेंगे तो विस्मित रह जाएँगे। जहाँ पुरुषों को गृहिणी की कोई सहायता न करने के लिए ताने दिये जाते हैं वहीं अगर कोई संवेदनशील पुरुष यह करने लगे तो यही औरतें किस कदर उसके अन्तर्मन को चोट पहुँचाकर अपनी पीठ थपथपाती हैं, यह आप सिर्फ कहानी पढ़कर ही जान सकते हैं।
इनके अलावा ‘रोशनी’, चिट्ठी में, “बंद कमरे का धुआँ”,”मंथन”और “स्वाहा”
कहानियाँ भी विविध विषयों पर पाठक से सवाल पूछती हुई जवाब का इंतज़ार करती नज़र आती हैं।
संग्रह में कुल बारह कहानियाँ संकलित हैं और हर कहानी का कथानक अलग-अलग विषय वस्तु को प्रस्तुत करता हुआ अपने पात्रों के साथ गहरी पैठ बना लेता है। मैं हर कहानी दो बार पढ़ चुकी हूँ और आश्चर्य नहीं कि कुछ दिन बीतने पर फिर से पढ़ने लगूँ। मैं अर्चना जी को हृदय की गहराइयों से शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ। निश्चित ही भविष्य में वे एक बड़ी कथाकार के रूप में उभर कर आएँगी।
-कल्पना रामानी
अर्चना ठाकुर की पुस्तक “लेखक की आत्मा” (कहानी संग्रह) पर महिमा श्री की समीक्षात्मक टिप्पणी …
वर्तमान में जब दलित विर्मश या स्त्री विर्मश कथाकारों की कहानियों का केन्द्र बिंदु होता है वही अर्चना ठाकुर जी किसी भी विचार धाराओं से परे अपने प्रथम कहानी संग्रह “लेखक की आत्मा” की कहानियों में सामाजिक विमर्श द्वारा मुख्य पात्रों के संवेदनाओं को सुक्ष्मतर स्तर पर अभिव्यक्त करते हुए पाठक के मन के गहराईयों में उतर जाती हैं । मनोविज्ञान की विद्यार्थी रह चुकी लेखिका ने पात्रों के मनोविज्ञान को बखूबी रेखांकित किया है । यही इनकी लेखनी को सशक्त भी करती है पर इससे कहानी लेखन की कलात्मकता तनिक भी प्रभावित नहीं होती है । लेखनी की रचनात्मक पकड़ आपको कई बार अचम्भित कर देती है। समय , समाज और मानवीय व्यवहार में रची –बसी कहानियाँ आपको पढ़ने के दौरान अपने में डूबों लेने में सक्षम है ।
“लेखक की आत्मा” कहानी में समाज में व्याप्त तथाकथित पाखंडी गुरुओं द्वारा समाज सेवा और धर्म के के नाम पर स्त्री के कोमल मन और देह के शोषण पर कलम चला कर आवाज उठाई गई है ।
वहीं किरदार कहानी में अमीर पिता द्वारा अपनी पागल बेटी के लिए एक गरीब संवेदशील पुरुष को इस्तेमाल कर हमेशा के लिए उसे अंधकार के गर्त में छोड़ देने की पीड़ा देर तक मन को कचोटती है। कुछ देर के लिए ही सही स्त्री विमर्श से परे आपको याद दिलाती है कि पुरुष भी इस्तेमाल किए जाते हैं ।
आज जब प्यार का मतलब देह से शुरु होकर देह तक की कवायद भर रह गई है ।वहीं “ चिठ्ठी में” कहानी में एक ऐसे अनकहे प्रथम प्रेम को दर्शाया गया है जिसे आधुनिक भाषा में प्लेटॉनिक लव कहते हैं जहाँ 13 वर्ष की उम्र में नायिका अनजाने ही किसी अजनबी से मन के स्तर पर जुड़ते चली जाती हैं और जीवन के उतरार्ध में जब वो अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट है ख्याल करनेवाला पति है , प्यार करने वाले बच्चे हैं तब भी उसके जेहन में वो पहला आर्कषण जिंदा रहता है जिसे बहुत ही खूबसूरती से लेखिका ने बुना है।
“मंथन” कहानी को पढ़ने के दौरान सहसा प्रेमचंद कौंध जाते है । अपने कलात्मक ताना-बाना और कथ्य की गहराई के साथ कहानी आर्दश और संस्कार को सहेजते हुए यर्थाथ को परोसती है जहाँ संकल्प है , सेवा है, घात है फिर पश्चाताप की आंच भी ।
आज की आधुनिक स्त्री की कहानियाँ है “स्वाहा” और “तुम्हारे लिए”। स्वाहा की नायिका एक मजबूत इरादो वाली स्त्री है जो संस्कारी है, शिक्षित है, स्वावलंबी है, निडर है और निर्णय लेने में सक्षम है। जो प्रेम और वासना के अंतर को बखूबी समझती है। अपनी अस्मिता पर किए गए आघात पर रोने-बिसुरने के बजाए बदला लेती है।वही तुम्हारे लिए की नायिका मनोविज्ञान की शोधार्थी होने के बावजूद अपनी अति-संवेदशीलता की वजह से स्वयं मानसिक रुप से अस्वस्थ हो जाती है ।नायिका के बहाने समाज का घृणित मतलबी चेहरा भी खुल कर सामने आता है।
इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ है। कहानी संग्रह वास्तव में संग्रह करने लायक है।
जिसमें “बंद कमरे का धुँआ”,”धुलेंडी” , “औरत हो क्या “ आदि बेहद हृदयस्पर्शी है । लेखिका अर्चना ठाकुर से भविष्य में इसीप्रकार की श्रेष्ठ कहानियों को उनके द्वारा लिखी गई कहानियों की पढने की शुभेच्छा के साथ बहुत सारी शुभकामनाएं ।
लेखक की आत्मा
अर्चना ठाकुर
आवरण चित्र -रोहित रुसिया
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“लेखक की आत्मा”_ अर्चना ठाकुर :एक पाठकीय समीक्षा _कंडवाल मोहन मदन
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माता _ पिता को समर्पित यह प्रथम कृति #लेखक की आत्मा# सुश्री अर्चना ठाकुर (अर्चना ठाकुर) का 112 पेज का कहानी संग्रह है ; जो अंजुमन प्रकाशन इलाहबाद से मुद्रित हुआ है 2015 में और मात्र रुपये 120/- में उपलब्ध है जबकि साहित्य सुलभ संस्करण मात्र रुपये 20/- का है। आकर्षक एब्स्ट्रेक्ट आवरण चित्र श्री रोहित रसिया का है और इसका पुरोवाक् वरिष्ठ कथाकार श्री रूपसिंह चंदेल जी ने लिखा है।
कुल 12 कहानियाँ दिवस के बारह घंटो सी हर कहानी के बाद कोई न कोई सन्देश का अलार्म बजाती हैं। “लेखक की आत्मा” पहली कहानी है जो स्वबोध काल्पनिक स्वप्निल पर मन्मथ शीर्षक कहानी है और अंन्तिम कहानी “तुम्हारे लिए ” हादसे की; समर्पण की ; स्वार्थपरकता की थोडा और लंबी कहानी है।
एक सामाजिक बाध्यता जिम्मेदारी और मनोवैज्ञानिकता का सम्पुट है इन कथाओं में।
लेखक की आत्मा के बहाने लेखिका ने मठाधीशो की स्वछँदता और आधी आबादी के दुरुपयोग की और इंगित किया है
ये मठाधीश किसी भी मंदिर में बहुतायत में उपलब्ध है/ चाहे वह मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा या चर्च हो या साहित्य सिनेमा कला रंगमंच का मंदिर।
आधी आबादी का एक्सप्लोइटेशन सेविका, दासी या कास्टिंग कॉच के बहाने तक यह बात चली जाती है जब निकलती है तो। मठाधीश या धर्मगुरु का प्रतीक और उसका जातिगत स्वभाव और आम- जनमानस की हर बात में दखलंदाजी और मनमानी का बयान इस कहानी के मूल में है। यह अपरोक्ष रूप में निरीह लेखकवर्ग और प्राचीनयुगीन संपादक (तथाकथित मठाधीश की स्वनिर्मित साहित्यिक दुर्बलताओं ; निरंकुशताओं और विषयधर्मिता) के कटु प्रसंगों का रेखांकन भी आभासित होता है। कुछ प्रतीक और प्रयोग पठनीय है मसलन…..
” ….आँखे फाड़ फाड़ के महल के कोने कोने को आँखों से पी रहा था…”
और ” इथिप् राज्य के नियमानुसार किसी भी नए व्यवसाय में लगने से पूर्व धर्मगुरु की आज्ञा लेना अनिवार्य होता है। यहाँ तक कि राज्य के राजा को भी अपने हर छोटे बड़े कार्य से पूर्व धर्मगुरु की आज्ञा की आवशयकता पड़ती थी।”……
पहले के लेखकों ने ये सामाजिक सरोकारी मुद्दे क्यों न उठाये से उपजी हताशा और लिखने की आत्मसंतुष्टि भाव की प्रधानता का प्रतिस्थापना तक की यात्रा यह कहानी स्वप्न में घटित होती है सर्जक के।
दूसरी कहानी है “किरदार”। “होती नहीं पूरी हर तलाश कभी,फिर भी तलाशता है मन कुछ न कुछ जरूर”… नायक का बलात् जीवन के रंगमंच पर (पतन) गिरना और अन्जाने किरदारों द्वारा कफ़न ओढ़ाना जीवन की (धर्मशाला होने जैंसा) नाटकीयता को और इसमें जनमानस की किरदार की भूमिका का बयान है।
अनिरुद्ध सागर मंजू दीदी और घर परिवार मोहल्ले के ताने -बाने पर बुनी गयी यह रचना नायिका (लेखिका) के किरदारों को खंगालने की स्वभावगत ख्वाहिश है और जीवन की विद्रूपताओं (आदर्शवाद बनाम धनसंस्कृति) से दो चार होने की आश्चर्यचकित करती मजबूरी भी। साथ ही विषय गंभीरता ओढ़कर भी तनुजा की मायके आकर जलेबी खाने छत पर टहलने की पुरानी आदतो को भी बारीक सम्वेदना से उकेरती है।
“वो तो दुनिया के रंगमंच का किरदार बस था, नाटक खत्म किरदार भी खत्म”….
और अनिरुद्ध सागर वो कैंसा किरदार रहा, जिसका नाटक किसी और ने लिखा, किसी और के मंच पर मंचन हुआ और उस किरदार का अंत भी ……व्यथित करती सोच संग कहानी विचार भंवर में छोड़ देती सी।
“अनकही” इस संग्रह की तीसरी कहानी के माध्यम से नैसर्गिक दैवीय प्रेम अहसास को फ्लैशबैक में जाकर उकेरा गया है। वर्तमान में पति कबीर की जान बचाने को हृदय प्रत्यारोपण हेतु पुराने संघर्ष दिनों के संगी साथी का मिलना और वो भी अनायास एक संभावित डोनर रूप में ..जो अपनी जिंदगी की आखिरी साँसे गिन रहा हो..कथ्यशिल्पता का प्रभाव है यहाँ; कविता, कबीर और वह शख़्श (मित्र किशोरावस्था का) जो प्रेम की भावना को शाश्वत जिलाये रखने हेतु अपना ऑक्सीजम मास्क हटा जीवन के ध्रुव सत्य का वरण कर जाता है डॉक्टर के अनुसार।
और वह दोस्त जो स्वभाववश कबीर हेतु उलझन में बिना गुजारिश के वापस लौट जाती है। सब पठनीय आत्मसात करने लायक सा।
शादी हेतु माता पिता समाज की अनिवार्यता और शादी के बाद प्यार की मान्यता संग प्रेम की अकस्मातता और शाश्वतता का स्वीकारीकरण भी यहाँ।
क्या इक अच्छा इंसान होना और एक अच्छा पति होना ही प्यार होने की वजह हो सकता है? इस प्रश्न का जवाब अभी भी उपलब्ध नहीं शायद। ‘उसने कहा था’ की आत्मोत्सर्गीय भाव स्पर्श करती रचना “अनकही’ न कहते भी काफी कुछ कह जाती उस शख्श (प्रिय मित्र) को जो मास्क हटा लेता है ।
“सयाना कौआ… बैठता है” के बहाने बिलासपुर के अति वाचाल तिकड़मी और छिद्रान्वेषी मामाजी का किरदार उनकी सौंदर्यशास्त्र ज्ञात्री धर्मपत्नी और गौरवसुत संग बाकी कहानियो से हटकर हलकी फ़ुल्की कहानी है । साथ ही लोभवशता से अपना कमाया भी गवाने की दास्ताँ भी याद कराती कि हर सेर को सवा सेर मिल ही जाता है।
यह कहानी शिवानी जी की कहानी की वो नायिका याद दिलाती है जो सब सब्जबाग दिखाकर भावना ज्वार में बहा सर्वस्व ले चम्पत हो जाती है। याद न आ रहा पर कृष्णवेणी; शम्शानचम्पा कैंजा या कोई कहानी थी। बुनावट सटीक यहाँ कथ्य का हरदम आशंका उत्सुकता बनाये रखता।
जहाँ “रौशनी” पांचवीं कथा में रौशनी, करीम चाचा और प्रेमी बन आये शख्श नेत्रदान के इर्द गिर्द बारीक़ संवेदनाओं वाली कहानी उभर आई है। वहीँ “चिट्ठी में” पत्र लेखन e—motion के युग में, अभय, सरिता, उमाजी याने अम्मा, पिताजी, मारो और बुलेट के बहाने एक अचेतन मन में पनपती प्रेमकथा उभर आई है।
कैशोर्य मन का स्ट्राइफ् और स्ट्रग्गल पीरियड की यह टीनेजर अवस्था प्रेम की उत्सुकता और अनायास होते जाते चेष्टाओं का बयान है जो कि नायिका सरिता की शादी होने एक खुशनुमा घर परिवार में होने पर भी बुलेट की आवाज जनित उत्सुकता में अंतर्नहित है अवगुंठित है। गगन और बेटे बेटी में खोई सरिता अचानक बुलेट को देख अनायास सहज भाव से उस अपरिपक्व प्रेम को आँगन में गिरे सूखे पत्तों से आँख आँखमिचौली कर स्मरण कर जाती है।
सातवी कहानी “बंद कमरे का धुआं” अल्पना, नीलम, शेखर बड़ी भावी , बाबू और रत्ना जैंसे जीवंत चरित्रो और आँगन ,गुड़हल, मीठे नीमसंग ,रंगोली, परास्नातक समय के मध्य …… अल्पना की सफाई की सनक या रात को 2 बजे नहाने को जाना ((गृह हिंसा, मानसिक यंत्रनाओं और भाभी के दोहरे चरित्र (विवाहेत्तर सम्बन्ध) पर उपदेश कुशल बहुतेरे और जेठ की अनायास रूचि उपहारों के बहानों ) का प्रतिफल है))….
ओ सी डी को परिभाषित करती हुई बेबाक बिंदास कहानी एक मनिवैज्ञानिक लेखिका की कहानी रचना संसार की विविद्यता और संवेदनाओं की पकड़ से रू ब रू करवाती हुई।
“मंथन” में गूंगे शीबू, किशन नाम के दो भाइयो का भ्रातृप्रेम और किशन की शीबू के प्रति अगाध रक्षा की भावना , रुक्मिणी दी, अब्बा और अम्मा की परिवार कथा से बनारस के परिवेश में अरुणिमा, (कहानी की नायिका) का अविर्भाव किशन के जीवन में प्रेम का पदार्पण सा है।
किशन की अनुपस्थिति और अरुणिमा का सहृदय वात्सल्य गूंगे देवर शीबू के प्रति और सहज निकटता जन्य से पुरुष स्त्री के उपजे दैहिक सम्बन्ध कालिमा से उत्पन्न ग्लानि भाव के कारण अरुणिमा का गायब होना और शीबू की एटीएम स्वीकारोक्ति अरुणिमा की पाकीजगी निर्दोषिता का दावा और अब तमंचे की मौजूदगी में घूमता अतीत प्रेम के हृदय से होने की शरीर से न होने की कटु अपच सत्यता को उद्घाटित करती कहानी यह।
“स्वाहा” कहानी औरत के प्रतिकार की कथा है, स्वाभिमान दोहन के प्रतिफल में। शीतल , राजेश, मित्रता; दूरियां, शील- हरण,दस्तक और बलात्कार से जनित घृणा के कारण राजेश को जाल में लाकर दमे से भीड़ वाली बस में कुत्ते सी मौत बहुत तेजी से बदलते घटनाक्रमो का साक्षी बनता पाठक।
“औरत हो क्या ?” कहानी में सीमित पाये जाने वाले पुरुष विमर्श को बखूबी चित्रित किया है लेखिका ने। पत्नी की मदद या माँ की मदद करता नायक माँ और पत्नी की कृपाओं और शुभेच्छाओं की भावना से ओत प्रोत होता है। वहीँ बुढ़ापे में पुत्रवधू की मदद और उसकी किट्टी पार्टी में खिल्ली उड़ते देख क्षणिक भ्रमित, दुखी और मोह -भंगित हो जाता है। पर बारिश में कपडे उठा माँ की बातो को याद कर आत्मसंतुष्टि करता है उबरता है औरत हो क्या ? के व्यंग्य दंश से।
“धुलैड़ी” कहानी ग्यारहवी कहानी है संग्रह की और यह कथा संग्रह की शीर्षक कहानी बनने के लायक भी है अगर लेखक की आत्मा न चुनी होती तो। यही सामर्थ्य कथा सन्ग्रह की अंतिम कहानी ” तुम्हारे लिए ” में भी है।
शालिनी,प्रतीक, माँ बाबूजी दिल्ली, आई आई टी कानपुर, प्रतीक का बंगलौर का अल्प प्रवास और शालिनी की पड़ोस को जानने की उत्कंठा और दुल्हेन्ड़ी में माँ बाप के साथ न होने का दुःख का पटाक्षेप होता है होली के मिलन समारोह में रंग और भंग लड्डू से जमे रंग से एक खुशफहमी छा जाती है वातवरण में।
प्रोफ़ेसर के दिशा निर्देश गवांर सी दिखती भार्या को और सबके सन्मुख उसकी आलोचना निंदनीय सा पर स्वभावगत विवशता उसकी। पर साथ ही पत्नी की अप्रत्याशित अनायास असीमित हंसी जो वर्षों के घुटन को शरीर की सलाखों को चीर चीर बाहर निकल रही थी ..और वह भी शालिनी के मोबाईल पर व्यस्तता से । यह कहानी सुखान्त हो जाती है और होली का रंग दीखता यहाँ अच्छा शब्द चित्र खींचते हुए।
अंत में दोष गिनने गिनाने से पहले अंतिम कहानी “तुम्हारे लिये” का जिक्र जरूरी है।
केशोर्यावस्था में स्नातक कक्षा हेतु नम्रता का मनोविज्ञान चुनाव, मनोचिकित्सालय भ्रमण एक टर्निंग पॉइंट सा ही है उसके जीवन में।
डॉक्टर चौहान की उस उत्तेजित युवक के वार्तालाप की प्रत्यक्षदर्शी नम्रता का मनु मनु नाम से उस युवक आशुतोष का चिल्ल्लाना और डॉक्टर चौहान का उस युवक की मनो सहायता का निवेदन जिंदगी की आरोही स्थिति में खड़ा करती उसे और वह हामी भर देती है। आशु की समीप्यता और मनोरमा का सत्य आशु की डायरी से उद्घाटित होने पर मनसा वाचा कर्मणा नम्रता का उसकी मदद का भाव युवक को बाहर ले आता उस मानसिक बीमारी से। यहाँ तक कि अपनी जिंदगी दुपट्टे से बांध कथित आत्महत्या दृश्य को भी वह दुहराने से गुरेज न होता उसे। प्रशंसा के बदले डॉक्टर चौहान की बेरुखी और अपने बेटे आशु से नम्रता को दूध की मक्खी सा बाहर निकाल फेंकना अब नम्रता ( याने मनोरमा के किरदार) को असह्य होता है और “सदमा की श्रीदेवी” सा हाल हो जाता उसका। सच मनोविज्ञान पढ़ा मन का उसने पर जीवन के स्वार्थ का मनोविज्ञान गुन न पायी और व्यवहारिकता के हाथों छली गयी। लंबी कहानी है पर यह भी शीर्षक कहानी होने का माद्दा रखती है।
सुन्दर शिल्प भाव विन्यास सभी कहानियों में देश काल और पात्र चरित्र चित्रण की मानदंडता का सम्यक निर्वहन।
यत्र तंत्र दृष्टान्त देना और जीवन दर्शन के ध्रुव सत्यों का स्मरण करवाना कहानी मध्य में जहाँ लेखिका की खूबी है; वहीँ अंत में वर्तमान काल बाहुल्य यत्र तत्र कथा रस आस्वादन में व्यवधान करता हैं।
आपका साधुवाद “लेखक की आत्मा” लिखने को।
धन्यवाद